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स्थाहादसिद्धि है-शरीर तो इन्द्रिय प्रत्यक्षसे ग्रहण किया जाता है और ज्ञान स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे । यह कौन नहीं जानता कि शरीर तो आंखों से देखा जाता है किंतु ज्ञान आंखों से देखने में नहीं आता। अतः दोनोंकी विभिन्न प्रमाणोंसे प्रतीति होनेसे उनमें परस्पर कारण कार्यभाव नहीं है । जिनमें करणकार्यभाव होता है वे विभिन्न प्रमाणोंसे गृहीत नहीं होते । अतः ज्ञानस्वरूप आत्मा भूतसंहतिरूप शरीरका कार्य नहीं है। और इसलिये वह अहेतुक -नित्य भी सिद्ध है।
चार्वाक-यदि ज्ञान शरीरका कार्य नहीं है तो न हो पर वह शरीरका स्वभाव अवश्य है और इसलिये वह शरीरसे भिन्न तत्व नहीं है, अत: उक्त हेतु प्रतिज्ञाथै कदेशासिद्ध है ?
जन-नहीं, दोनों की पर्यायें भिन्न भिन्न देखी जाती हैं, जिस तरह शरीरसे बाल्यादि अवस्थाएं उत्पन्न होती हैं उस तरह रागादिपर्यायें उससे उत्पन्न नहीं होती-वे चैतन्य स्वरूप
आत्मासे हो उत्पन्न होती हैं। किंतु जो जिसका स्वभाव होता है वह उससे भिन्न पर्यायवाला नहीं होता। जैसे सड़े महुआ
और गुडादिकसे उत्पन्न मदिरा उनका स्वभाव होनसे भिन्न द्रव्य नहीं है और न भिन्न पर्यायवाली है। अत: सिद्ध है कि ज्ञान शरीर का स्वभाव नहीं है।
अत एव प्रमाणित होता है कि आत्मा भूतसंघातसे भिन्न तत्त्व है और वह उसका न कार्या है तथा न स्वभाव है। । शरीरे दृश्यमानेऽपि न चैतन्यं विलोक्यते । शरीरं न च चैतन्य यतो भेदस्तयोस्तत: ॥ चक्षुषा वीक्ष्यत गाणं चैतन्य संविदा यतः । भिवज्ञानोपलम्भेन तनो भेदस्तयो: म्फुटम् ॥ ..-पपुराण
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