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प्रस्तावना
और अनेक सूरियों (आचार्य) द्वारा जगतमें ग्रन्थरचनादिके रूप में प्रख्यापित हुआ है । यथा
. इत्येवं गणनायकेन कथितं पुण्यासवं शृण्वतां तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापित' सूरिभिः । विद्यास्कृतिविधाय धर्मजननीबाणीगणाभ्यथिनां वक्ष्ये गद्यमयेन वाङ्मयसुधावर्षेण वाक्सिद्धये ॥ १५॥
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दूसरे, यदि क्षेत्रचूडामणि और गद्य चितामणि वादीभ सिंह सूरिकी अन्तिम रचनाएं हों तो गुणभद्र ( ई०८४८) के उत्तरपुराणका उनमें अनुसरण मानने में भी कोई हानि नहीं है ।
अतः वादीमसिंहको गुणभद्राचार्यका उत्तरवर्ती सिद्ध करनेके लिये जो उक्त हेतु दिया गया है वह वादीभसिंह उपरोक्त समयका बाधक नहीं है ।
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२. दूसरी बाधाको उपस्थित करते हुए उसके उपस्थापक श्रीस्वामी शास्त्री और प्रेमोजी दोनों विद्वानोंको कुछ भ्रान्ति हुई है । वह भ्रान्ति यह है कि गद्यचिन्तामणिकी उक्त गद्यको सत्यन्धर महाराजके शोक के प्रसङ्गमें कही गई बतलाई है किन्तु वह उनके शोक के प्रसङ्ग में नहीं कही गई। अपितु काष्ठाङ्गार के हाथीको जीवन्धरस्वामीने कड़ा मारा था, उससे क्रुद्ध हुए काष्ठाद्वारके निकट जब जीवन्धरस्वामीको गन्धोलटने बांधकर भेज दिया और काष्टाङ्गारने उन्हें बधस्थानमें लेजाकर फांसी देने की सजाका हुकुम दे दिया तो सारे नगर में सन्नाटा छा गया और समस्त नगरवासी सन्ताप में मग्न होगये तथा शोक करने लगे । इसी समयकी उक्त गद्य हैं और जो पांचवें लम्बमें पाई जाता है जहां सत्यन्धरका कोई सम्बन्ध नहीं है— उनका तो पहले लम्ब तक ही सम्बन्ध है । वह पूरी ग्रकृतोपयोगी गद्य इस प्रकार है
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