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स्याद्वादसद्धि देवसूरि', प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य २ प्रभृति तार्किकोंने किया है । न्यायमञ्जरीकारका वह खण्डन इस प्रकार है
'भारतेऽप्येवमभिधातु शक्यत्वात् ।
भारताध्ययनं सर्व गृध्ययनपूर्व कं । . भारताध्ययनवाच्यत्वादिदानीन्तनभारताध्ययनर्वादति पर
-न्यायमं० पृ० २१४॥ परन्तु वादोभसिंहने स्याद्वादसिद्धि में कुमारिलकी उक्त कारि काके खण्डनके लिये अन्य विद्वानोंकी तरह न्यायमञ्जरोकारका अनुगमन नहीं किया। अपितु स्वरचित एक भिन्न कारिका द्वारा उसका निरसन किया है जो निम्न प्रकार है:पिटकाध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम् ।
। तदध्ययनवाच्यत्वादधुनेव भवेदिति । -स्या. १०-३०,
इसके अतिरिक्त वादीभसिंहने कोई पांच जगह और भी इसी स्याद्वादसिद्धि में पिटकका ही उल्लेख किया है, जो प्राचीन पर म्पराका द्योतक है । अष्टशती और अष्टसहस्री (पृ. २३.७)में अकलङ्कदेव तथा उनके अनुगामी विद्यानन्दने भी इसी (पिटकत्रय) का ही उल्लेख किया है।
इससे हम इस नतीजेपर पहुचते हैं कि यदि वादीभसिंह न्यायमञ्जरोकार जयन्तभट्टके उत्तरवर्ती होते तो संभव था कि वे उनका अन्य उत्तरकालीन विद्वानों की तरह जरूर अनुसरण करते- 'भारताध्ययनं सर्व' इत्यादिको ही अपनाते और उस हालतमें 'पिटकाध्ययनं सर्व' इस नई कारिकाको जन्म न देते। इससे ज्ञात होता है कि वादीभसिंह न्यायमञ्जरीकारके उत्तर वर्ती विद्वान् नहीं हैं। न्यायमञ्जरीकारका समय ई० ८४० के १ देखो, स्था. र. पृ. ६३४। २ देखो, प्रमेयरत्न. पृ. १३७॥
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