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स्याद्वादसिद्धि करके उनकी आलोचना की गई है। कुमारिजभट्ट और प्रभाकर समकालीन विद्वान हैं तथा ईसाकी सातवीं शताब्दा उनका स .मय माना जाता है, अतः वादीभसिंह इनके उत्तरवर्ती हैं। ।
४. बौद्ध विद्वान् शङ्करानन्दकी अपोहसिद्धि, और प्रतिबन्ध सिद्धिकी आलोचना स्याद्वादसिद्धिके तीसरे-चौथे प्रकरणोंमें के गई मालम होती है । शङ्करानन्दका समय राहुल सांस्कृत्यायन ई०८१० निर्धारित किया है । शङ्करानन्दके उत्तरकालीन अन्न विद्वान्की आलोचना अथवा विचार स्याद्वादसिद्धि में पाया जा ता हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। अतः वादोहिके समय पूर्वावधि शङ्करानन्दका समय जानना चाहिये। अर्थात् ईसाई ८ वी शती इनकी पर्वावधि मानने में कोई बाधा नहीं है।
अब उत्तरावधिके साधक प्रमाण दिये जाते हैं
१. तामिल-साहित्यके विद्वान पं० स्वामिनाथय्या और । कुप्पस्वामो शास्त्रीने अनेक प्रमाणपूर्वक यह सिद्ध किया है। तामिल भाषामें रचित तिरुत्तकोव कृत 'जीव चिन्तामणि' ग्रन क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिकी छाया लेकर रचा गया
और जीवकचिन्तामणिका उल्लेख सर्व प्रथम तामिलभाषाके रियपुराणमें मिलता है जिसे चोल-नरेश कुलोत्तुङ्गके अनुरोध शेकिनार नामक विद्वान्ने रचा माना जाता है। कुलोत्तुङ्ग राज्यकाल वि० सं० ११३७ से ११७५ (ई. १०८० से ई० १११ तक है । अतः वादीभसिंह इससे पूर्ववर्ती हैं- बादके नहीं
२, श्रावकके आठ मूलगुणोंके बारेमें जिनसेनाचार्यके । एक ही परम्परा थी और वह थी स्वामी समन्तनद्रकृत रत्नव एडकश्रावकाचार प्रतिपादित । जिसमें तीन मकार (मद्य, म १ देखो, 'वादन्याय का परिशिष्ट A । २ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास ।
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