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स्याद्वादसिद्धि छाप (अनुकृति). जान पड़ती है। इस प्रकार के प्रयत्न के जैनला. हित्यमें अनेक उदाहरण मिलते हैं। तत्वार्थश्लोकवातिक ग्रादि महान दार्शनिक ग्रंथों के कर्ता आचार्य विद्यानन्दकी जनसाहित्य मैं जो भारी ख्याति और प्रसिद्धि है वैसी ही ख्याति और प्रसिद्धि ईसाकी १६ वीं शताब्दी में हुए एक दूसरे विद्यानन्दिकी हुम्बुचके शिलालेखों और वर्द्धमानमुनीन्द्रके दशभक्त्यादिमहाशा. स्त्रमें वर्णित मिलती है और जिससे विद्वानोंको इन दोनोंके ऐक्य में भ्रम हुआ है, जिसका निराकरण विद्यानन्दकी स्वोपज्ञ टीका सहित 'प्राप्त-परीक्षा की प्रस्तावनामें किया गया है। हो सकता है कि प्रथम नामवाले विद्वानकी तरह उसी नामवाले दूसरे वि. द्वान् भी प्रभावशाली रहे हों। अतः ८वीं-8वीं शताब्दीसे १२वीं शताब्दी तक विभिन्न वादीभसिंहोंका अस्तित्व मानना चाहिए। यहां यह उल्लेखनीय है कि उक्त ग्रन्थों के कर्ता वादीभसिंह के कवि और स्याद्वादी होनेके उनके ग्रन्थों में प्रचुर बेज भी मिलते हैं। __ अब इनके समथपर विचार किया जाता है। .
१. स्वामीसमन्तभद्ररचित रत्नकरण्डक पार - साप्तमीमांसा. का क्रमशः क्षत्रचूड़ामणि और स्याद्वादसिद्धिपर स्पष्ट प्रभाव है। यथाश्वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म किल्विषात् ।
.. रत्नकरण्ड० श्लोक २६ । देवता भविता श्वापि देवः श्वा धर्म-पापतः ।
-क्षत्रचूडामणि ११-७७ । कुशलाकशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् ।। आप्त,८॥ कुशलाकुशलत्वं च न चेत्ते दाहिंस्रयोः ।।
.... -स्या० ३-५० । १ देखो, प्रस्तावना पृ० ८ ।
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