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स्याद्वादसिद्धि स्थित किये जाते हैं।
(१) क्षत्रचूडामणि और गधचिन्तामणिके मङ्गलाचरणों में कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान भक्तोंके समीहित (जिनेश्वर. पदप्राप्ति) को पुष्ट करें-देवें । यथा
(क) श्रीपतिभंगवान्पष्याद्भक्तानां वः समीहितम् । यद्भक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ॥१॥ ....
-क्षत्रचू० १-१ । (ख) श्रियः पतिः पुष्यतु यः समीहित,
त्रिलोकरक्षानिरतो जिनेश्वरः । यदीयपादाम्बुजभक्तिःशीकरः, सुरासुराधीशपदाय जायते ॥ -गचि० पृ०१।
लगभग यही प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धिके मङ्गलाचरणमें कहा गया है
(ग) नमः श्रोवर्द्धमानाय स्वामिने विश्ववेदिने । नित्यानन्द-स्वभावाय भक्त-सारूप्य-दायिने ॥३-७॥
(२) जिस प्रकार क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिके प्रत्येक लम्बके अन्तमें समाप्ति-पुष्पिकावाक्य दिए हैं वैसे ही स्याद्वाद. सिद्धिके प्रकरणान्तमें वे पाये जाते हैं। यथा
(क) 'इति श्रीमद्वादीमसिंहसूरिविरचिते क्षत्रच डामणौ सरस्वतीलभ्भो नाम प्रथमो लम्बः' - क्षत्रच डा० ।
(ख, 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसरिविरचिते गद्यचिन्तमणी सर. स्वतोलम्भो नाम प्रथमो लम्बः।' -गर्याचन्तामणि ।
(ग) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसरिविचितायां स्याद्वादसिद्धौ चार्वाकं प्रति जीवसिद्धिः ।-स्याद्वादसिद्धि। .
(३) जिस तरह क्षत्रच डामणि और गर्धाचन्तामणि में यत्र क्वचित् नीति, तर्क और सिद्धान्तकी घुट उपलब्ध होती है उसी
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