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प्रस्तावना शेष उल्लेखों में मेरा विचार है कि तीसरा और छठा ये दो उल्लेख अभिन्न हैं तथा उन्हें एक दूसरे वादीभसिंहके होना चाहिए, जिन का दूसरा नाम मल्लिषेणप्रशस्ति और निर्दिष्ट शिलालेखोंमें अजितसेन मुनि अथवा अजितसेन पण्डितदेव भी पाया जाता है तथा जिनके उक्त प्रशस्तिमें शान्तिनाथ और पद्मनाभ अपरनाम श्रीकान्त और वादिकालाहल नामके दो शिष्य भी बतलाये गये हैं। इन मल्लिषेणप्रशस्ति और शिलालेखोंका लेखनकाल ई० ११२८, ई० १०६० और ई० १५४७ है और इसलिये इन वादीमसिंहका समय लगभग ई० १०६५ से ई० ११५० तक हो सकता है । बाकीके चार उल्लेख-पहला, दूसरा, चौथा और पांचवाँ. प्रथम वादीभसिंहके होना चाहिये, जिन्हें 'वादिसिंह' नामसे भी साहित्य में उल्लेखित किया गयाहै । वादीभसिंह और वादिसिंहके अर्थमें कोई भेद नहीं है-दोनोंका एक ही अर्थ है। वादिरूपी गजोंके लिये सिंह और वादियोंके लिये सिंह एक ही बात है।
अब यदि यह सम्भावना की जाय कि क्षत्रचूडामणि और गचिन्तामणि काव्यग्रंथोंके कर्ता वादीभसिंहसरि ही स्याद्वादसिद्धिकार हैं और इन्हींने प्राप्तमीमांसापर विद्यानन्दसे पूर्व कोई टीका अथवा वृत्ति लिखो है जो लघुसमन्तभद्रके उल्लेख तथा विद्यानन्दके 'केचित' शब्द के साथ उद्धृत 'जयति जगति' आदि पद्य परसे जानी जाती है तथा इन्हीं वादीभसिंहका 'वादिसिंह' नामसे जिनसेन और वादिराजसरिने बड़े सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। तथा 'स्याद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्य गजिते' वाक्यमें वादिराजने 'स्याद्वादगिर' पदके द्वारा इन्हों की प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि जैसी स्याद्वादविद्यासे परिपूर्ण कृतियों की ओर इशारा किया है तो कोई अनुचित मालूम नहीं होता । इसके औचित्यको सिद्ध करनेवाले नीचे कुछ प्रमाण भी उप
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