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प्रस्तावना
सरह वह प्रायः स्याद्वादसिद्धिमें भी उपलब्ध होतो है। यथा(1) 'भतर्कितमिदं वृत्तं तकरू हि निश्चलम् ॥ १-४२॥ इत्यहेन विरक्तोऽभद्गगत्यधीन हि मानसम् ॥३-६५॥
-क्षत्रचूडामणि। (ख) ततो हि सुधियः संसारमुपेशन्ते ।।
-गधचिन्तामणि पृ०७८॥ 'एवं परगतिक्रोिधिन्या.."चार्वाकमतसब्रह्मचारिख्या राज्यया परिगृहीताः वित्तिपतिसुताः.... नैयायिकनिर्दिष्ट निर्वाणपदमतिष्ठिता हव"कापिलकल्पितपुरुषा इव प्रकृतिविकारपरं पंचन प्रतिपादयन्ति ।।
-द्यचि० पृ०६६ । 'यत्तो युदयनि यससिदिः स धर्मः। स च सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकः । अपमस्तु सद्विपरीतः।" -गय० पृ०२४३ ।
(ग) तदुपायं ततो वक्ष्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥३-२॥ नयबास्तवतः कार्ये कल्पिताग्नेश्च दाहवर ॥२-१८॥ न हि स्वान्यार्तिकृत्वं स्याद्विराने विश्ववेदिनि ०-२सा सत्येवात्मनि धौ च सोल्योपाये मुखार्थिभिः । धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ॥१.२४॥-स्था द्वा० ।
इन तुलनात्मक उद्धरणोंपरसे सम्भावना होती है कि क्षत्रचूडा. मणि तथा गधचिन्तामणिके का वादीभसिंहसरि और स्याद्वादसिद्धि के कर्ता बादीभसिंहसूरि अभिन्न हैं-एक ही विद्वानकी ये तीनों कृतियां हैं। इन कृतियोंसे उनकी उत्कृष्ट कवि, उत्कृष्ट वादी और उत्कृष्ट दार्शनिककी ख्याति और प्रसिद्धि भो यथार्थ जंचती है। द्वितीय वादीभसिंहकी भी जो इसी प्रकारको ख्याति और प्रसिद्धि शिलालेखोंमें उल्लिखित पाई जाती है और जिससे विद्वानोंको यह भ्रम हुआ है कि वे दोनों एक हैं वह हमें प्रथम वादीभसिंहकी
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