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प्राक्कथन
वियोगोंके आधारसे नाना आकारोंको धारण करते रहते हैं। प्रत्येक द्रव्य अनन्त धर्मोंका आवरोधी अखंड आधार है। उसके विराट रूपको शब्दोंसे कहना असंभव है। उस अनन्तधर्मा या अनेकान्त वस्तुके एक-एक धर्मको जानकर और उस अशंग्रहमें पूर्णताका भान करने वाले ये मतग्रह हैं जो पक्षभेदकी सृष्टि करके राग-द्वेष, संघर्ष, हिंसाको बढ़ा रहे है । अतः मानस अहिंसाके लिय वस्तुके 'अनेकान्त' स्वरूप दर्शन की आवश्यकता है। जब मनुष्य वस्तुके विराट रूप तथा अपने ज्ञानकी आंशिक गतिको निष्पक्ष भावसे देखेगा तो उसे सहज ही यह भान हुए वगैर नहीं रह सकता कि-दूसरोंके ज्ञान भी वस्तुके किसी एक अंशको देख रहे हैं अतः उनकी सहानुभूति-पूर्वक समीक्षा होनी चाहिए । अपन पक्षके दुरभिनिवेशवश दूसरेका बिना विचारे तिरस्कार नहीं होना चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा प्रत्येक वस्तुके विचार करनेकी पद्धति अनेकान्तदर्शनका ही फल है । ___ तात्पर्य यह कि प्रत्येक पदार्थ अपने अपने गुण और पर्याय रूपसे परिणमन करता हुआ अनन्त धर्मोंका युगपत् आधार है। हमारा ज्ञान स्वल्प है। हम उसके एक-एक अंशको छूकर उसमें पूर्णताका अहंकार-ऐसा ही है' न करें, उसमें दूसरे धर्मों के 'भी' अस्तित्वको स्वीकार करें। यह है वह मानस उच्च भूमिका जिसपर आनेसे मानस राग, द्वेष, अहंकार, पक्षाभिनिवेश, साम्प्रदायिक मताग्रह, हठवाद, वितण्डा, संघर्ष, हिंसा, युद्ध आदि नष्ट होकर पर-समादर, तटस्था सहानुभूति, मध्यस्थभाव, मैत्रीभावना, सहिष्णुता, वीतरागकथा, अन्ततः विनय, कृतज्ञता, दया आदि सात्त्विक मानस अहिंसाका उदय होता है। यही अहिंसक तत्त्वज्ञानका फल है। आचार्योंने ज्ञानका उत्कृष्ट फल उपेक्षाराग-द्वेष न होकर मध्यस्थ अनासक्त भावका उदय ही बताया है।
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