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स्याद्वादसिद्धि
उन्हें सहष स्वीकारता दे दी और ७ नवम्बर १९४८ को उसका कार्यारम्भ भी कर दिया। परन्तु ग्रन्थकी प्राप्त प्रतिलिपि बहुत ही अशुद्ध और त्रुटित होनेसे प्रेसकापीका मूल ताडपत्रीय प्रतिसे, जो मूडबिद्रीके जैन-मठके भण्डारमें सुरक्षित है और जिसके वहाँ होनेका पता पीछे मालूम पड़ा, मिलान किये बिना उसे प्रेसमें देना उचित. एवं इष्ट नहीं समझा। अतः उसे मंगानेके लिये हमने पं० के० भुजबलिजी शास्त्रीको पत्र लिखा। शास्त्रीजीने उक्त प्रति हमें तुरन्त भेज दी। पर मूल प्रति कन्नड लिपिमें होने तथा सरसावामें आसपास उसका कोई जानकार न होनेसे ग्रन्थका काम दो-ढाई महिने रुका पड़ा रहा। १८ फरवरी १६४६ को जब युक्त्यनुशासनके मिलानकार्यसे बनारस जाना पड़ा तो वहाँ पं० देवरभट्टजी न्यायाचार्यके साथ, जो कन्नड तथा संस्कृत दोनोंके योग्य विद्वान हैं, इसका मूल प्रतिसे मिलान किया गया। मिलान करने पर प्रायः सभी अशुद्ध पाठ ठीक होगये और कुछ ब्रटित पाठ भी पूरे होगये; क्योंकि मूल ताडपत्र प्रति प्रायः शुद्ध है और अच्छी तरह पढ़ी जाती है। मिलानसे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ वह यह हुआ कि. प्राप्त प्रतिलिपिमें जो चौदहवेंप्रकरणकी ५७ से ७० तक १४, ब्रह्मदूषणसिद्धि प्रकरणकी ५२ से १८६. तक १३८ और अन्तिम प्रकरणकी ६३= १५८३ के लगभग कारिकाएँ एवं उपलब्ध अन्तिम डेढ़-दो अधूरे प्रकरण छूटे हुए थे वे सब इस मिलानसे प्रकाशमें आगये। आश्चर्यकी बात है कि इतनी कारिकाएँ एवं प्रकरण-के-प्रकरण लेखकने छोड़ दिये थे!
यहाँ उल्लेखनीय है कि इसी मिलानके दौरानमें माननीय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यसे भी इस ग्रन्थकी एक प्रतिलिपि प्राप्त होगई, जो उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये कन्नडशाखाद्वारा कराई थी। इसमें उक्त सब कारिकाएँ व प्रकरण मौजूद हैं।
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