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प्रस्तावना
नानाधर्मात्मक हैं और वे नाना धर्म उनके उसी तरह वास्तविक हैं जिस तरह मिट्टीके स्थासादिक । ___यहां यह ध्यान देने योग्य है कि वादीभसिंहकी तरह विद्यानन्दने भी अनेकान्तके दो भेद बतलाये हैं: - एक सहानेकान्त
और दूसरा क्रमानेकान्त । और इन दोनों अनेकान्तोंकी प्रसिद्धि एवं मान्यताको उन्होंने श्रोगृद्धापच्छाचार्यके 'गुणपर्ययवद्द्रव्यम्' [त० स० ५-३०] इस सूत्रकथनसे समर्थित किया है अथवा सूत्रकार के कथनको उक्त दो अनेकान्तोंकी दृष्टिसे सार्थक बतलाया है । अतः युगपदनेकान्त और क्रमानेकान्तरूप दो अनेकान्तोंकी प्रस्तुत चर्चा जैन दशनकी एक बहुत प्राचीन चर्चा मालूम होती है जिसका स्पष्ट उल्लेख इन दोनों विद्वानों द्वारा ही हुआ जान पड़ता है। यह प्रकरण ८६६ कारिकाओं में समाप्त है।
५. भोक्तृत्वाभावसिद्धि-इसमें सर्वथा नित्यवादीको लक्ष्य करके उसके नित्यैकान्तकी समीक्षा की गई है। कहा गया है कि यदि आत्मादि वस्तु सर्वथा नित्य-कूटस्थ-सदा एक-सो रहने वाली-अपरिवर्तनशील हो तो वह न कर्ता बन सकती है
और न भोक्ता । कतो माननेपर भोक्ता और भोक्ता माननेपर कर्ताके अभावका प्रसङ्ग आता है, क्योंकि कर्तापन और भोक्तापन ये दोनों क्रमवर्ती परिवर्तन हैं और वस्तु नित्यवादियोंद्वारा सर्वथा अपरिचत नशोल-नित्य मानी गई है। यदि वह कर्तापनका त्यागकर भोक्ता बने तो वह नित्य नहीं रहतीअनित्य हो जाती है, क्योंकि कर्तापन आदि वस्तुसे अभिन्न हैं।
१ गुणवद्व्यमित्युक्त सहानेकान्तसिद्धये । तथा पर्यायवद्व्यं क्रमानेकान्तवित्तये ॥-तत्त्वार्थश्लो श्लो०४३८
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