Book Title: Syadvadasiddhi
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 12
________________ स्याद्वादसिद्धि जब शाश्वत आत्मवादी अपनी सभा में यह उपदेश देता हो कि आत्मा कूटस्थ नित्य है, निर्लेप है, अवध्य है, कोई हिंसक नहीं, हिंसा नहीं और उच्छेदवादी यह कहता हो कि मरने पर यह जीव पृथिवी आदि भूतोंमें मिल जाता है, उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता । न परलोक है और न मुक्ति ही । तब आत्मा और परलोक के सम्बन्धमें मौन रखना तथा अहिंसा और दुःखनिवृत्तिका उपदेश देना सचमुच बिना नींव के मकान बनानेके समान ही है । जिज्ञासु पहिले यह जानना चाहेगा कि वह आला क्या है, जिसे जन्म, जरा, मरण आदि दुःख हैं और जिसे ब्रह्मचर्य - वासके द्वारा दुःखों का नाश करना है ? यदि आत्माकी जन्मसे मरण तक ही सत्ता है तो इस जन्मको चिन्ता ही मुख्य करनी है | और यदि आत्मा एक शाश्वत द्रव्य है तो उसे निर्लिप्त मानने पर ये अज्ञान, दुःख आदि कैसे आए ? यही वह पृष्ठभूमि है जिसने भ० महावीरको सर्वागीण अहिंसाकी साधना के लिये मानस अहिंसा के जीवनरूप अनेकान्तदर्शन और वाचनिक अहिंसा के निर्दरूप स्याद्वादकी विवेचनाके लिये प्रेरित किया । अनेकान्त दर्शन こ अनन्त स्वतन्त्र आत्माएँ, अनन्त बुद्धलपरमाणु, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्य कालागुद्रव्य के समूहको ही लोक या कहते हैं । इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंका विभाव परिजन नहीं होता । वे अपने स्वाभाविक परिणनमें लीन रहते हैं। आला और पुद्गल द्रव्यों के परस्पर सम्बन्धले ये शरीर, इन्द्रियां आदि तथा पुलों के परस्पर संयोग-विभाग से ये पर्वत, नदी, पृथिवी आदि उत्पन्न होते और नष्ट होते रहते हैं । इनका नियन्ता कोई ईश्वर नहीं है । सब अपने उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य परिणमनमें अपने अपने संयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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