Book Title: Syadvadasiddhi
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 14
________________ स्याद्वाइसिद्धि स्याद्वाद अमृतभाषा इस तरह जब मानस अहिंसाकी सात्त्विक भूमिकापर यह मानव आजाता है तब इसके पशुका नाश हो जाता है, दानव मानवगें बदल जाता है। तब इसकी वाणीमें सरलता, स्नेह, समादर, नम्रता और निरहङ्कारता आदि आ जाते हैं। स्पष्ट होकर भी विनम्र और हृदयग्राही होता है। इसी निर्दोष भाषाको स्याद्वाद कहते हैं। स्यात्-वाद अर्थात यह बात स्यात-अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे वाद-कही जा रही है। यह स्यात्' शब्द ढुलमुल यकीनी, शायद, संभवतः, कदाचित् जैसे संशयके परिवारसे अत्यन्त दूर है। यह अंश निश्चयका प्रतीक है और भाषाक उस डंकको नष्ट करता है जिसके द्वारा अंशमें पूर्णताका दुराग्रह, कदाग्रह और हठाग्रह किया जाता है। यह उस सर्वहारा. प्रवृत्ति को समाप्त करता है जो अपने हकके सिवाय दूसरोंके श्रम और अस्तित्वको समाप्त करके संघर्ष और हिंसाको जन्म देती है। यह स्यात्वाद रूपी अमृत उस महान अहंकार-विषमज्वरकी परमौषधि है जिसके आवेशमें यह मानवतनधारी तूफान या बबूलेकी तरह जमीनपर पैर ही नहीं टिकाता और जगतमें शास्त्रार्थ, वाद-विवाद, धर्मदिग्विजय, मतविस्तार जैसे आवरण लेता है। दूसरोंको बिना समझे ही नास्तिक, पशु, मिथ्यात्वी, अपसद, प्राकृत, ग्राम्य, धृष्ट आदि सभ्य गालियोंसे सन्मानित (?) करता है। 'स्याद्वाद' का 'स्यात्' अपनेमें सुनिश्चित है। और महावीरने अपने संघके प्रत्येक सदस्यकी भाषाशुद्धि इसीके द्वारा की। इस तरह अनेकान्तदर्शनके द्वारा मानसशुद्धि और स्याद्वादके द्वारा वचनशुद्धि होनेपर ही अहिंसाके बाह्याचार, ब्रह्मचर्य आदि सजीव हुए, इनमें प्राण आए और मन, वचन और कायके यत्नाचारसे इनकी अप्रमाद परिणतिसे अहिंसामन्दिरकी प्राणप्रतिष्ठा हुई। महावीरने बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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