Book Title: Syadvadasiddhi
Author(s): Darbarilal Nyayatirth
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 11
________________ प्राकथन ११ होगा तब तक संघके पंचमेल व्यक्तियांका मानस रागद्वेष आदि पक्षभूमिकासे उठकर तटस्थ अहिंसाकी भूमिपर आ ही नहीं सकता और मानस संतुलनके बिना वचनोंमें तटस्थता और निर्दोषता पाना संभव ही नहीं । कायिक आचार भले ही हमारा संयत और अहिंसक बन जाय पर इससे आत्मशुद्धि तो हो नहीं सकती। उसके लिये तो मनके विचारोंको और वाणीकी वितंडा प्रवृत्तिको रास्तेपर लाना ही होगा। इसी विचारसे अनेकान्त दर्शन तथा स्याद्वादका आविर्भाव हुआ। महावीर पूर्ण अहिंसक योगी थे। उनको परिपूर्ण तत्वज्ञान था। वे इस बातकी गम्भीर आवश्यकता समझते थे कि तत्त्वज्ञानके पायेपर ही अहिंसक आचारका भव्य-प्रासाद खड़ा किया जा सकता है । दृष्टान्तके लिये हम यज्ञ-हिंसा सम्बन्धी विचारको ही लें। याज्ञिकोंका यह दर्शन था कि पशुओंकी सृष्टि स्वयम्भूने यज्ञके लिये ही की है, अतः यज्ञमें किया जाने वाला वध वध नहीं है, अवध है। इसमें दो बातें हैं-१ ईश्वरने सृष्टि बनाई है और २ पशुसृष्टि यज्ञके लिये ही है। अतः यज्ञमें किया जाने वाला पशुवध विहित है। इस विचार के सामने जब तक यह सिद्ध नहीं किया जायगा कि-"सृष्टिकी रचना ईश्वरने नहीं की है किन्तु यह अनादि है । जैसी हमारी आत्मा स्वयं सिद्ध है वैसी ही पशुकी आत्मा भी । जैसे हम जीना चाहते हैं, हमें अपने प्राण प्रिय हैं वैसे ही पशुको भी। इस लोकमें किये गये हिंसाकर्मसे परलोकमें आत्माको नरकादि गतियोंमें दुःख भोगना पड़ते हैं। हिंसासे आत्मा मलिन होता है। यह विश्व अनन्त जीवोंका अावास है । प्रत्येकका अपना स्वतःसिद्ध स्वातन्त्र्य है, अतः मन वचन कायगत अहिंसक आचार ही विश्वमें शान्ति ला सकता है।" तब तक किसी समझदारको यज्ञवधकी निःसारता, अस्वाभाविकता और पापरूपता कैसे समझमें आ सकती है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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