Book Title: Syadvadasiddhi Author(s): Darbarilal Nyayatirth Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti View full book textPage 9
________________ प्राकथन इस संवादसे निम्न लिखित बातें फलित होनी हैं१. बुद्धने आत्मा, लोक, परलोक आदि तत्वों की चर्चामें न अपनेको उलझाया और न शिष्योंको । २. लोकको चाहे शाश्वत साना जाय या अशाश्वत ! उससे ब्रह्म.चर्य धारण करनेमें कोई बाधा नहीं है। ३. बुद्धके उपदेशको धारण करनेकी यह शर्त भी नहीं है कि शिष्यको उक्त तत्वोंका ज्ञान कराया ही जाय। ४. बुद्धने जिन्हें व्याकृत कहा उन्हें व्याकृत रूपसे और जिन्हें ___ अव्याकृत कहा उन्हें अव्याकृत रूपसे ही धारण करना चाहिये। उस समयका वातावरण_ आजसे २५००-२६०० वर्ष पहले के धार्मिक वातावरणपर निगाह फैंके तो मालूम होगा कि उस समय लोक, परलोक, अात्मा आदिके विषयमें मनुष्यकी जिज्ञासा जग चुकी थी। वह अपनी जिज्ञासाको अनुपयोगिताके आवरणमें भीतर ही भीतर मानसिक हीनताका रूप नहीं लेने देना चाहता था। जिन दस प्रश्नोंको बुद्धने अव्याकृत रखा, उनका बताना अनुपयोगी कहा, सच पूंछा जाय तो धर्म धारण करनेकी आधारभूत वा वे ही है। यदि आत्माके स्वतन्त्र द्रव्य और परलोकगाापत्वका विश्वास न हो तो धर्मका आधार ही बदल जाता है। प्रज्ञापारमिताओंकी परिपूर्णताका क्या अर्थ रह जाता है ? 'विश्वके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है ? वह कैसा है ?' यह बोध हुए बिना हमारी चाका संयत रूप ही क्या हो सकता है ? यह ठीक है कि इनके वादविवादमें मनुष्य न पड़े। पर यदि जरा, मरण, वेदना, रोग आदि के आधारभूत आत्माकी ही प्रतीति न हो तो दुष्कर ब्रह्मचर्यचास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 172