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अपने आन्तरिक भक्तिभावसे प्रेरित होकर मैंने जिन महान प्रभावक आचार्यका जीवन इस ग्रंथमें लिखनेका प्रयत्न किया उन्हीं महान् पुरुषका ( हीरविजयसूरिका ) वास्तविक चित्र मुझे कहींसे भी प्राप्त न हुआ,इस लिए वह इसमें न दिया जासका । विवश उनके निर्वाण होनेके थोड़े ही दिन बाद स्थापित की हुइ पाषाणमूर्ति, जो कि 'महुवा' (काठियावाड़) में विद्यमान है, उसीका फोटो इसमें दिया गया है । यद्यपि अज्ञानजन्य प्रचलित रूढिके कारण श्रावकोंने चांदीके टीले लगाकर मूर्तिकी वास्तविक सुन्दरता बिगाड़ दी है तथापि यह समझकर इसका फोटो दिया गया है कि, इसके द्वारा वास्तविक फोटोकी कई अंशोंमें पूर्ति होगी। इस पाषाण-मूर्तिके नीचे जो शिलालेख है। वह पूरा यहाँ उद्धृत किया जाता है।
“१६५३ पातसाहि श्रीअकबरपवर्तित सं० ४१ वर्षे फा० सुदि ८ दिने श्रीस्तंभतीर्थवास्तव्य श्रा० पउमा (भा०) पांची नाम्न्या श्रीहीरविजयसूरीश्वराणां० मूर्तिः का०प्र० तपागछे (च्छे) श्रीविजयसेनसूरिभिः।"
इस लेखसे ज्ञात होता है कि, हीरविजयसूरिके निर्वाणके बाद दूसरे ही बरस खंभातनिवासी श्रावक पउमा और उसकी स्त्री पाँची नामकी श्राविकाने यह मूर्ति करवाई थी और उसकी प्रतिष्ठा विजयसेनमूरिने की थी।
इस पुस्तकके दूसरे नायक अकबर और उसके मुख्य मंत्री अबुल्फ़ज़लके चित्र डा० एफ डब्ल्यु थामसने, ' इंडिया ऑफिस लायब्ररी -जो लंदनमें है- मेंसे पूज्यपाद परमगुरु शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजके पास भेजकर, इस पुस्तककी शोभाको बढ़ानेमें कारणभूत हुए हैं, अतएव मैं उन्हें धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता ।
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