Book Title: Supasnahachariyam Part 03
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 22
________________ रेणखंनउरजिणहरे चडाविया कणय(मय)कलसा ॥ १ ॥ जेण कुणंतेण तवं च उत्थछटुं च उभयकालेवि । सद्धम्मदेसणा भवियणस्स न कयावि परिचत्ता ॥२॥ सावयलोओ कल्लाणएसु अट्टाहियासु सविसेस । गामेसु य नयरेसु य बहू पयट्टाविओ जेण ॥३॥ नियनाणेणं केणइ तह वेमाणियसुरोवएसेण । परलोयगमणसमय निययं नाऊण आसन्नं ।।७(?)। नीरोगम्मिवि देहे कमेण काऊण कवलपरिहारं । खविऊण मुंह सयलं जेण पवनो अभत्तहो ॥८॥ जस्सुत्तिमट्टगहणं सोऊणं गरुयखेयभरियमणा । परतित्थियावि पइदिणमुवेति पासे सयलनयणा ॥९॥ गुज्जरनरिंदनयरे सो कोविन अस्थि रायपभिइजणे । अणसणवियाण जो तेसिमागओ नेय पासम्मि ॥१०॥ सिरिसालिभदमृरिप्पमुहेहिं ग (?अ) भय २ सूरीहिं । जस्स सीवे गंतूण मूरियं बहु ससोएहि ॥११॥ मासम्मि भदवए टे (?वटुंते) तेरसम्मि उववासे । सोहियवसा य वरभवणमझओ नीहरेऊण ॥१२॥ पाययलेहि लीलाए डंडहत्थेहिं अवलियगई हिं । कस्सवि अन्नस्स करे अविलगुं ( ? गं) तेहिं सयमेव ॥१३॥ नरनाहमाणणिज्जे (?ज्जो) निवनयरनिवासिनेगमगणाण। सव्वेसिपि पहाणो सगिहटिओसीयो सेट्ठी ।। जम्स पयपउमदसणकयाहिलासो समाहिमलहंतो । दक्खिन्नमहोयहिणा परोवयारेक्करसिएण ॥१५॥ पृथ्वीराजेन शाकम्भरीनरेन्द्रेण यस्य लेखेन । रणस्तम्भपुरजिनगृहे आरोपिताः कनकमयकलशाः॥१॥ येन कुर्वता तपश्चतुर्थषष्ठं चोभयकालेऽपि । सद्धर्मदेशना भविजनस्य न कदापि परित्यक्ता ॥२॥ श्रावकलोकः कल्याणकष्वष्टाहिकासु सविशेषम् । ग्रामेषु च नगरेषु च बहुः प्रवर्तितो येन ॥३॥ निजज्ञानेन केनचित्तथा वैमानिकसुरोपदेशेन । परलोकगमनसमयं निजं ज्ञात्वाऽऽसन्नम् ॥७॥ नीरोगेऽपि देहे क्रमेण कृत्वा कवलपरिहारम्। क्षपयित्वा सुखं सकलं येन प्रपन्नोऽभक्तार्थः ॥ ८ ॥ यस्योत्तमार्थग्रहणं श्रुत्वा गुरुखेदभृतमनसः। परतीर्थिका अपि प्रतिदिनभुपयन्ति सजलनयनाः॥६॥ गूर्जरनरेन्द्रनगरे स कोऽपि नास्ति राजप्रभृतिजने। अनशनितानां यस्तेषामागतो नैव पार्श्वे ॥ १० ॥ श्रीशालिभद्रसूरिप्रमुखैरभयाभयसूरिभिः। यस्य समीपे गत्वा खेदितं बहु सशोकैः ॥ ११॥ मासे भाद्रपदे वर्तमाने त्रयोदश उपवासे । शुद्धिवशाच्च वरभवनमध्यतो निःसृत्य ॥ १२॥ पादतलैीलया दण्डहस्तैरस्खलितगतिभिः । कस्याप्यन्यस्य करेऽविलगद्भिः स्वयमेव ॥ १३ ॥ नरनाथमाननीयो नृपनगरनिवासिनैगमगणानाम् । सर्वेषामपि प्रधानः स्वगृहस्थितः श्रीयकः श्रेष्ठी ॥ १४॥ यस्य पदपद्मदर्शनकृताभिलाषः समाधिमलभमानः । दाक्षिण्यमहोदधिना परोपकारैकरसिकेन ॥ १५ ॥ "यस्य संदेशकेनापि पृथ्वीराजेन भूभुजा । रणस्तम्भपुरे न्यस्तः स्वर्णकुम्भो जिनालये ।। ९ ॥" सद्गुरुपद्धतिगाथासु च:-- "रणथंभपुरे आणालेहेणं जम्स तन्नरिंदेण । हेमधयदंडमिसओ निचं नच्चाविया कित्ती ॥ ३ ॥" १ 'अजमेर' समीपे रणथंभोर' इति संप्रति ख्यातम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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