Book Title: Supasnahachariyam Part 03
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown
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पउमकहा।
५२१ तो मंतीहिं भणियं मा मा इह देव ! कुणतु तं भर्ति । अमयरसभोयणेणं जाया एयारिसी एसा ॥ किश्च । तुटेणं सुरवइणा देहावयवावि सुंदरा विहिया । तुम्हुवरोहण इमा मोकलिया इह महाराय ! ॥७१।। तो तुटेणं रन्ना नियकरिअद्धासणम्मि संठविउं । गुरुपुरसोहपुरस्सरमाणीया मंदिरे नियए ॥७२॥ भुंजइ विउले भोए तीइ समं असमरागगयचित्तो । पुच्छइ य सग्गवत्तं कहेइ सा पुव्वसिक्खविया ।। तो भो वजह राग जेण समालिंगिया न याणंति । महुमत्तमाणवा इव कज्जाकजाइयं किंपि ॥७४।। इय कवडवचणावि हु चइयव्वा सावएहिं सविसेसं । असमंजसभामावि हु मोहरियत्ता न भणियब्वा ॥ जे गयविवेगवयणा पउमोव्व लहंति दुक्खसंघायं । ते इहऽपि परत्ते नरयगई जति नियमेण ॥६॥ तम्हा मोहरियत्तं वज्जित्ता महुरनिउणसंबद्धं । निरवज्ज चिय वज्जरह तरह भवजलनिहिं जेण ॥७७॥
___॥ इति तृतीयगुणवतमौखर्यातिचारविपाके पनकथानकं समाप्तम् ।।
पूर्व त्वियं श्यामा करालकर्णा च विषमगुरुदन्ता । लम्बौष्ठा चिपिटनासा संप्रत्यन्येव प्रतिभाति ॥६९।। ततो मन्त्रिभिभाणितं मा मेह देव ! कुरु त्वं भ्रान्तिम् । अमृतरसभोजनेन जातैतादृश्येषा ॥७०॥ तुष्टेन सुरपतिना देहावयवादपि सुन्दरा विहिता । युष्मदुपरोधेनेयं मुत्कलितेह महाराज ! ॥७१।। ततस्तुष्टेन राज्ञा निजकर्यर्धासने संस्थाप्य । गुरुपुरशोभापुरस्सरमानीता मन्दिरे निजे ॥७२॥ भुङ्क्ते विपुलान् भोगांस्तया सममसमरागगतचित्तः । पृच्छति च स्वर्गवाती कथयात सा पूर्वाशक्षिता ॥७३॥ ततो भो वर्जयत राग येन समालिङ्गिता न जानन्ति । मधुमत्तमानवा इव कार्याकार्यादिकं किमपि ॥७४॥ इति कपटवश्चनापि हि त्यक्तव्या श्रावकैः सविशेषम् । असमञ्जसभाषापि हि मौखर्यान्न भणितव्या ॥७॥ ये गतविवेकवचना पद्म इव लभन्ते दुःखसंघातम् । त इहापि परत्र नरकगतिं यान्ति नियमेन ॥७६॥ तस्मान्मौखर्य वनयित्वा मधुरनिपुणसंबद्धम् । निरवद्यमेव कथयत तरत भवजलनिधिं येन ॥७७॥
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