Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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श्रावक केश लोच : आगमेतर सोच 13 X. वे पानी भी बिना आज्ञा पीते नहीं थे। जैन मुनि की तरह उसे अदत्तादान मानते थे। इतनी कठोरता के कारणं अम्बड़ परिव्राजक के शिष्यों ने अदत्त पानी पीने की बजाय संथारा कर लिया और पांचवें देवलोक में गये। क्या ये यदि लोच करवा लेते तो उनसे वह पीड़ा सहन नहीं होती? लेकिन नहीं, जैन भिक्षु के प्रतीक चिह्न को उन्होंने स्वयं अपनाकर अनादृत नहीं किया। जिस व्यक्ति वर्ग या संस्कृति का जो अंग चिरकाल से बना हुआ हो वह उसे ही सजता
और जंचता है। अन्य द्वारा अपनाये जाने पर न उस अंग की शोभा बचती है, न अपनाने वाले की छवि बनती है। श्रावक लोच के समर्थक कह सकते हैं कि अपने शरीर पर होने वाली पीड़ा को सहन करना बड़ी बात है, अत: उस प्रक्रिया से गुजरने वाले श्रावकों को दाद मिलनी चाहिए तथा प्ररेणा देने वाले साधु-साध्वियों को समर्थन। परन्तु जैन धर्म को यथार्थ में समझने वाले व्यक्ति के सामने ऐसा कर पाना इसलिए कठिन होता है क्योंकि पीड़ा सहन मात्र ही जैनों का लक्ष्य नहीं है, न उसे धार्मिकता और आध्यात्मिकता का अभिन्न अंग माना। यदि पीड़ा सहना ही धर्म हो तो मुहर्रम के अवसर पर हजारों लाखों मुस्लिम यवक अपने शरीर को चाकुओं से काट लेते हैं, जंजीरो से पीटते हैं, खून से लथपथ हो जाते हैं तथा बाद में दवाई नहीं लेते, मरहम पट्टी नहीं करवाते। दक्षिण भारत में कई मंदिरों की रथयात्रा के दौरान भक्तगण अपनी जीभ को बींध देते हैं। एक गाल से दूसरे गाल तक भाला चुभा देते है। ईसाई जगत् में कई स्थानों पर क्राइस्ट की स्मृति में छाती में कीलें गाड़ी जाती हैं, अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग ढंग से पीड़ा सहने की विधियाँ हैं, क्या वे सब प्रशंसनीय, अनुमोदनीय और महानिर्जरा कारक हैं? यदि आज कुछ भाई केशलोच का कष्ट सहकर परम धार्मिकता की अनुभूति कर रहे हैं तो कल कोई अपने हाथ-पैरों के नाखूनों को उखाड़कर उत्कृष्ट धार्मिकता की नई पद्धति प्रारम्भ कर सकता है। मुनियों का लोच देखकर श्रावकों में स्वयं लोच करवाने की भावुकता उमड़ जाती है। फिर श्रावकों का लोच देखकर तो अन्य श्रावकों के भावुक होने की संभावना बढ़ती ही बढ़ती है। देखा-देखी में, भावुकता में लोच करवाना उसी तरह वर्जनीय है जैसे दीक्षा लेना। भावना और भावुकता का स्वरूप एक नहीं होता। जैन धर्म भावना को मुख्यता देता है भावुकता को नहीं। जैसे कई व्यक्ति भावुकता वश एकदम दीक्षा लेने का आग्रह करने लगे तो साधु और श्रावक संघ उसे रोकता है, ऐसे ही भावुकता लोच