Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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26 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 चैत्यभक्ति करके पूर्वदिशा में स्थित चैत्यालय की वंदना करते हैं, ऐसे ही पुनः बोलकर संभवनाथ और अभिनंदननाथ की स्तुति पढ़कर अंचलिका सहित लघु चैत्य भक्ति पढ़ कर दक्षिण दिशा में स्थित चैत्यालय की वंदना करते हैं। इसी तरह सुमतिनाथ और पद्मप्रभु की स्तुति पूर्वक लघु चैत्य भक्ति करके पश्चिम दिशा तथा सुपार्श्वनाथ एवं चन्द्रप्रभु की स्तुति सहित लघु चैत्य भक्ति करके उत्तर दिशा में स्थित जिन चैत्यालय की वन्दना करते हैं। वहाँ पर बैठे हुए लोग चारों दिशाओं में तंदुल-पीताक्षत प्रक्षेपण करते हैं। पुन: साधु पंचगुरुभक्ति, शान्तिभक्ति एवं समाधि-भक्ति पूर्वक संकल्प करते हैं और दिशा विदिशाओं की जाने की मर्यादा करते हैं। इस प्रकार की क्रिया करने के बाद कलश को स्थापित करते हैं। हालांकि चातुर्मास कलश स्थापना का वर्णन अलग से किसी भी ग्रन्थ में हमारे स्वाध्याय में दृष्टिगोचर नहीं हुआ, फिर भी हम सभी को पूर्व से चली आ रही परम्परा का पालन करना उचित होगा। प्रत्येक मंगल कार्य में आचार्यों ने मंगल कलश स्थापना का वर्णन किया है। चातुर्मास भी एक मंगल कार्य है, जैन दर्शन में पूर्ण कलश मंगल का प्रतीक है और चातुर्मास भी मंगल का प्रतीक है। यही क्रिया कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम प्रहर में वर्षायोग निष्ठापना पर की जाती है। पुनः वर्षायोग निष्ठापन के बाद सूर्य का उदय होने पर भगवान महावीर स्वामी की निर्वाण क्रिया में सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करनी चाहिए। वर्षायोग निष्ठापन व प्रतिष्ठापन क्रिया के सम्बन्ध में जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' में लिखा है कि आषाढ़ शुक्ला १४ की रात्रि के प्रथम पहर में प्रतिष्ठापन और कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रि के चौथे पहर में निष्ठापन करना। चातुर्मास आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी के दिन प्रारंभ होता है और किन्हीं परिस्थितियोंवश श्रावण शुक्ला पंचमी तक भी स्थापना हो सकती है। इस चतुर्दशी के दिन प्रतिक्रमण किया जाता है। जिसमें सातों प्रकार के (दैवसिक, रात्रिक, एर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ) प्रतिक्रमण समाहित हो जाते हैं।१२ चातुर्मास में आधा योजन तक जाने की छूट रहती है। मूलाचार में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग का प्रमाण दिया है जिसका चिन्तवन करना चाहिए।