Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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36 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 नैरमेष मृण प्रतिमाओं के सम्बन्ध में विद्वानों ने विस्तृत व्याख्या की है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ४३, ८५-८७; अग्रवाल पी०के०, १९८५ : ३०-३१; जायसवाल विदुला, १९९१ : ४०-४५)। बकरी या भेंड़ के समान पशु मुख की मानव मृण्मूर्ति जिसके लम्बे लटकते कान की चीरी या छिद्रित लर है, सामान्यतः चेहरा दोनों कानों के मध्य दोहरे उभार (चुटकी से निर्मित) का शुकाकार रूप में निर्मित है। चेहरे में ठोढ़ी का अंकन एवं चीरा मुख है। अधिकांश प्रतिमाओं के हाथ एवं पैरों के सिरों पर चम्मच अथवा प्याला समान गर्त, सिर पर मिट्टी की त्रिभुजाकार पट्टी जोड़कर इसमें एक या दो छिद्र का अंकन है। ये प्रतिमाएँ ज्यादातर भग्न हैं एवं इनका चपटा शरीर, चौड़ा कंधा एवं मोटा गला निर्मित है। इन अजमुखी प्रतिमाओं की पहचान नैग्मेष या हरिनेगमेषी के रूप में है। ब्राह्मण एवं जैन साहित्य में इसके अनेकों नाम मिलते है जैसे- नैग्मेष, नैग्मेय, नैजमेष, नैगमेषिन इत्यादि। इसकी कुछ प्रस्तर प्रतिमाएँ मथुरा के कुषाण काल में पहले से ज्ञात हैं। एक प्राचीन प्रस्तर पटिया जो कि मथुरा के कुषाण काल के प्राचीन जैन क्षेत्र कंकाली टीले से प्राप्त है इस पर देव का अंकन है तथा इस पर 'भगवा नेमेषी' अर्थात् भगवान् नैग्मेषी लिखा है। इसमें शिशजन्म के देवता का आह्वान का अंकन भी प्रस्तर पटिया पर दिखता है (ब्यूलर जी०, १८९३ : ३१६; चित्रं; फलक II; शर्मा आर०सी०, १९९४ : ८२-८३)। उपर्युक्त समस्त मूर्तियाँ मूलत: जैन आख्यान से सम्बन्धित हैं एवं अपने विकास क्रम को प्रस्तुत कर रही हैं। कल्पसूत्र के अनुसार इन्द्र की आज्ञा से उनके हरिनैग्मेष नामक अनुचर देव ने महावीर को गर्भ रूप में देवनन्दा की कुक्षि से निकालकर त्रिशला रानी की कक्षि में स्थापित किया था। इस प्रकार हरिनैग्मेषी का सम्बन्ध बाल रक्षा से स्थापित हुआ जान पड़ता है (जैन हीरालाल, १९७२ : ३५९-३६१)। महाभारत एवं प्राचीन आयुर्वेद संहिताओं में यह स्कन्ध देव का भाई या अन्य रूप में एवं अनेक कुमार ग्रहों का पिता, जो बालक जन्म में प्रधान होता है, के रूप वर्णित है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८६; अग्रवाल पी०के०, १९६६ : ३३-३४; ५०-५२)। कुछ कुषाण प्रतिमाओं में इसका सम्बन्ध मातृदेवी की प्रतिमा से है। इस देव की प्राचीनता वास्तव में पूर्व वैदिक काल से भी पूर्व जाती है जिसे ऋग्वैदिक परिशिष्ट एवं गृहसूत्र साहित्य में नेजमेषा कहा गया है (अग्रवाल पी०के०, १९६६)। इस देवता का प्रतिमाविज्ञानी विकास मथुरा की प्रस्तर प्रतिमाओं द्वारा प्रचुर मात्रा में स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है एवं इस प्रकार की प्रचलित पूजा-उपासना के प्रचलन का साक्ष्य स्पष्ट रूप से राजघाट उत्खनन की मूर्तियों से प्राप्त है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८६-८७)। अजमुख चेहरे की