Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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38 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 2, अप्रैल-जून, 2016 की जा सकती है। संभव है इन मृण्मूर्तियों में प्याले के समान दबाव के मूल में कोई दन्तकथा अथवा प्राचीन जनश्रुति हो (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४२-४३)। कल्पसूत्र एवं अन्तगडदसाओ में नैग्मेष एवं नैग्मेषी का उल्लेख है। 'हिरणशीर्ष युक्त मानव' (जैकोबी एच०, १९६४ : २४७) एवं दिव्य आकाशीय सेना का मुखिया जो हिरण शीर्ष के साथ प्रदर्शित है (बर्नेट एल०डी०, १९७३ : ७६)। साहित्य में यह पुरुष रूप में वर्णित है परन्तु मृणमूर्ति में यह स्त्री एवं पुरुष दोनों रूपों में निर्मित है। वाराणसी में नैग्मेषी मृणमूर्ति में मानव मुख अजकर्ण की विशेषता भी दिखती है। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है कि उपलब्ध मूर्तियों से ऐसा प्रतीत होता है कि संतान पालन में देव की अपेक्षा देवी की उपासना अधिक औचित्य रखती है। अतएव देव के स्थान पर देवी की कल्पना प्रारम्भ हुई, तत्पश्चात् अजमुख का परित्याग करके सुन्दर स्त्री का मुख इस देव-देवी को दिया गया, फिर देव-देवी दोनों ही एक साथ बालकों के साथ दिखाए गये (जैन हीरालाल, १९७२ : ३५९-३६१; जैन एन्टीक्युटी, १९३७, वाल्यूम II, ३७)। “संभव है शिशु के पालन-पोषण में बकरी के दूध के महत्त्व के कारण इस अजमुख देवता की प्रतिष्ठा हुई हो? (जैन हीरालाल, १९७२ : ३६१)। इसका सम्बन्ध स्कन्ध अग्निपुत्र से है जो नैग्मेय का भाई /पिता (सोरसन एस०, १९६३ : ४९५) था, नैग्मेष के अजशीर्ष का वर्णन आगे चलकर तीन देवताओं से सम्बन्धित हो गया। उदाहरण के लिए उर्वरता अग्नि की वास्तविकता का प्रधान लक्षण थी जो परिणामत: लोक कला में नैग्मेष का स्थान ग्रहण करती है। अग्नि से नैग्मेष के बीच परिवर्तन का कारण यद्यपि स्कन्ध को प्रकट करता है जो दोनों से सम्बन्धित है! इसमें नैग्मेष मूर्तियों के लटकते कानों का अंकन बीच में गहरे खाँच द्वारा है। इसका वर्णन महाकाव्यों एवं काव्य में है। उदाहरण के लिए बकरी के दोनों कानों में आहुति डालना (या स्वर्ण पर) जो संभवत: अग्नि के लिए बनती हो (हॉपकिन्स इ०डब्ल्यू०, १९८६ : १०३; जायसवाल विदुला, १९९१ : ४३)। प्राचीन साहित्य में 'नैग्मेष' हरिनैग्मेष की स्थापना दो कारणों से होती होगी। प्रथम
जैन एवं हिन्दुओं द्वारा प्रजा/सन्तति हेतु विस्तृत रूप में मानी गई होगी (अग्रवाल वी०एस०, १९३७ : ७-६)। कल्पसूत्र, नेमिनाथ चरित एवं अन्तगंडदसाओ में इसका उल्लेख है। दूसरा विचार, नैग्मेष की उपासना का विचार बुराई एवं कमजोरी से रक्षा हेतु था (जायसवाल विदुला, १९९१ : ४३)। कुछ कुषाण प्रतिमाओं में यह मातृदेवी से सम्बन्धित है। इस देव की प्राचीनता वास्तव में उत्तरवैदिक काल से भी पीछे जाती है। ऋग्वेद परिशिष्ट एवं गृहसूत्र साहित्य में इसे नैजमेष कहा गया है (नारायन, ए०के० एवं पी०के० अग्रवाल, १९७८ : ८६)। वाराणसी से मानवमुखी