Book Title: Sramana 2016 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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जैन परम्परा में वर्षायोग का महत्त्व : 25 अपरिग्रह की साधना तथा साधुवर्ग के प्रति लोक श्रद्धा का दृष्टिकोण रहा है। एक
ओर यह भी स्पष्ट बताया गया है कि वर्षाकाल के चार मास तक एक. ही क्षेत्र में स्थित क्यों रहें? जबकि दूसरी ओर वर्षावास समाप्ति के बाद कोई कारण न हो तो नियमानुसार वह विहार कर दे, ताकि वहाँ की जनता, क्षेत्र आदि से मोह-बंधन न हो, जनता की साधु वर्ग के प्रति अश्रद्धा व अवज्ञा न बढ़े। वृद्धावस्था, अशक्ति,रुग्णता आदि हो तो वह उस क्षेत्र में भी रह भी सकता है। अनगार धर्मामृत ग्रन्थ की प्रस्तावना में सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि वर्षाऋतु के अतिरिक्त साधु को गाँव में एक दिन और नगर में पाँच दिन ठहरना चाहिए। दोनों परम्पराओं को यह नियम मान्य है। श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार पाँच कारणों से वर्षाऋतु में भी स्थान-परिवर्तन किया जा सकता है१. किसी ऐसे आचार्य से जिन्होंने आमरण आहार का त्याग किया हो, कोई आवश्यक अध्ययन करने के लिए। २. किसी खतरनाक स्थान में किसी के पथभ्रष्ट होने से रोकने के लिए। ३. धर्म प्रचार के लिए। ४. यदि आचार्य या उपाध्याय का मरण हो जाये। ५. यदि आचार्य या उपाध्याय ऐसे प्रदेश में ठहरे हों जहाँ वर्षा नहीं होती तो उनके पास जाने के लिए। कोई साधु एक ही स्थान पर दो वर्षावास नहीं कर सकता। वर्षाकाल बीत जानेपर भी यदि मार्ग कीचड़ से या जन्तुओं से भरा हो तो साधु पाँच से दस दिन तक उसी स्थान पर अधिक भी ठहर सकते हैं। प्राचीन काल में मुनि जंगलों में निवास करते थे और वृक्षों के नीचे एकासन से योग धारण करते थे क्योंकि उस समय संहनन विशेष होता था। आज के समय में हीन संहनन होने के कारण साधुजन शक्ति के अनुसार ही साधन करते हैं, और पूर्व परंपरा को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं। अनगार धर्मामृत' में वर्षायोग प्रतिष्ठापन के संबन्ध में लिखा है कि आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की पूर्वरात्रि में साधु वर्षायोग प्रतिष्ठापन करते हैं। आचार्य आदि सभी साधु मिलकर सिद्धभक्ति और योगभक्ति करके ‘यावंति जिनचैत्यानि' इत्यादि श्लोक बोलकर आदिनाथ एवं अजितनाथ की स्तुति बोलकर अंचलिका सहित लघु