Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ आदर्श और स्वस्थ जीवन जीने की कला : ७ क्रोध को न जोई। प्राण की धारा को हटाएं और क्रोध को अपनी चेतना से अलग अनुभव करें। अनुभव के स्तर पर पहुँचकर यह अनुभव करें-मैं क्रोध नहीं हूँ, मैं अभिमान नहीं हूँ, मैं घृणा नहीं हूँ, मैं राग नहीं हूँ, मैं द्वेष नहीं हूँ। ये मेरे स्वभाव नहीं हैं। इस गहराई में जाकर यह अनुभव करें और वहाँ जो शेष बचेगा, वह मैं हूँ यह विवेक की पद्धति है। यही सम्यक् दर्शन है।२१ आचार्यश्री महाप्रज्ञ के अनुसार स्वतंत्रता, पूर्णता एवं आनन्द की अनुभूति है।२२ जिसके अभाव में समस्याएं उत्पन्न होती हैं और जिसके होने पर समस्याएं सुलझती हैं, उसका नाम 'अध्यात्म' है। अध्यात्म केवल आत्मानुभूति का प्रयोग है। यह सर्वथा अपदार्थ की चेतना है। इसे चेतना का सर्वोत्तम विकास कहा जा सकता है।२३ आचार्य महाप्रज्ञ की मान्यता है जब कायोत्सर्ग का अभ्यास पुष्ट हो जाता है, तब यह अनुभव होता है कि-शरीर अचेतन है, मैं शरीर नहीं हूँ, श्वास नहीं हूँ, इन्द्रिय अचेतन है, मैं इन्द्रिय नहीं हूँ। मन अचेतन है, मैं मन नहीं हूँ। भाषा अचेतन है, मैं भाषा नहीं हूँ। कायोत्सर्ग के अभ्यास से शरीर, श्वास, इन्द्रिय आदि आत्मा से पृथक् हैं, यह भेद-ज्ञान होने पर ही अस्तित्व का दर्शन अर्थात् सम्यक्-दर्शन होता है। सम्यग्दर्शन के फल हैं- शान्ति, मुक्ति की चेतना, अनासक्ति, अनुकम्पा और सत्य के प्रति समर्पण।२४ आचार्यश्री महाप्रज्ञ के अनुसार-सकर्मा, सत्कर्मा और निष्कर्मा आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ हैं जो क्रमशः बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के ही नामान्तर हैं। जो मनुष्य शरीर और आत्मा को एक मानता है वह बहिरात्मा है। जो मनुष्य शरीर और आत्मा की भिन्नता का अनुभव करता है, वह अन्तरात्मा है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा आत्मा के आवृत रूप को प्रकट करता है वह परमात्मा है।५ इन्हें क्रमशः मूर्छा की चेतना, जागृति की चेतना और वीतरागता की चेतना कह सकते हैं।२६ आचार्य महाप्रज्ञ जी लिखते हैं-जिस व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि जागं जाती है, उसका चिन्तन स्वस्थ हो जाता है। स्वस्थ चिन्तन का पहला सूत्र है-'अन्यत्व की अनुप्रेक्षा'। मैं शरीर से भिन्न हूँ और शरीर मुझसे भिन्न है, इस तरह शरीर का बोध होने पर व्यक्ति शरीर में होने वाली घटनाओं को द्रष्टा की भाँति देखता है। उसका संवेदन नहीं करता। अन्यत्व अनुप्रेक्षा से पहली बार उसे अनुभव होता है कि मैं अकेला हूँ। वह सोचता है, जब शरीर ही मेरा नहीं है तो दूसरा कौन मेरा होगा? एकल अनुप्रेक्षा के स्थिर होने पर एक नया चिंतन उभरता है, वह है- आत्मा के साथ शरीर, पदार्थ, व्यक्ति का संयोग। जहाँ संयोग है, वहाँ वियोग निश्चित है। जब अनित्य अनुप्रेक्षा अनुभव

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