Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 59
________________ ५० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ । अप्रैल-जून-१० प्रभावित होती है। दोनों एक-दूसरे की सहगामी हैं। मेरे विनम्र विचार में, युद्ध और शत्रुता रुग्ण मानसिकता की अभिव्यक्तियाँ और निष्पत्तियाँ हैं। यह व्यक्ति और समाज का आक्रामक और स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण ही है, जो विभिन्न व्यक्तियों, व्यक्ति और समाज, विभिन्न सामाजिक-समुदायों और राष्ट्रों के आपस में आमनेसामने हो जाने की स्थिति को जन्म देता है। सभी प्रकार के युद्ध और शत्रुता, जिनसे हमारा वातावरण अशांत हो जाता है, के मूल में असंतोष की भावना तथा सत्ता, सम्पत्ति और संग्रह के प्रति हमारी अपरिमित इच्छा ही है। इस प्रकार सामाजिक-अशान्ति, आपसी-टकराहट, युद्ध और शत्रुता हमारे मानसिक रूप से बीमार या तनावपूर्ण स्थिति में होने के लक्षण हैं। वस्तुतः, सामाजिक-शान्ति, समाज में रहने वाले लोगों के मनोवैज्ञानिक या मानसिक-स्वभाव पर निर्भर करती है, परन्तु यह भी सच है कि सामाजिकवातावरण और सामाजिक-प्रशिक्षण, जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण और बाहरीआचरण के प्रतिमान निर्धारित करते हैं। अहिंसक-समाज हिंसक-समाज से स्पष्टतया भिन्न होता है। एक ओर जहाँ सामाजिक-परिस्थितियाँ, सामाजिकप्रतिमान और आदर्श व्यक्ति के मानसिक-स्वभाव और बाहरी आचरण पर प्रभाव डालते हैं, वहीं दूसरी ओर व्यक्तियों के मानसिक-स्वभाव और बाहरी आचरण द्वारा सामाजिक-प्रतिमानों और आदर्शों का स्वरूप निर्धारित करते हैं। यद्यपि यह सही है कि कई बार प्रतिकूल सामाजिक-परिस्थितियाँ और प्रतिकूल वातावरण हमारे मानसिक असन्तुलन के लिए जिम्मेदार होते हैं, परन्तु एक दृढ़ आध्यात्मिक पुरुष इन स्थितियों से अप्रभावित रहता है। जैन धर्म के अनुसार आध्यात्मिक-रूप से विकसित आत्मा मानसिक स्तर पर बाह्य-हलचलों से अप्रभावित रहती है, परन्तु विकारी-आत्मा निश्चिततया हमारी सामाजिक-शान्ति को प्रभावित करती है। आधुनिक तनाव-सिद्धान्त भी इस विचार का समर्थन करते हैं। एक पुस्तक जिसका नाम है 'Tensions that causes Wars' हमें बताती है- “आर्थिक असमानताएं, असुरक्षा एवं निराशा समाज को विभिन्न वर्गों में बांटते हैं और विभिन्न राष्ट्रों के बीच टकराहटों को जन्म देते हैं, परन्तु जैन-दृष्टिकोण के अनुसार आर्थिक असमानता और असुरक्षा का भाव उन व्यक्तियों को प्रभावित नहीं कर सकता है, जो आत्मसन्तोषी तथा भय और आशंकाओं से मुक्त हैं। जहाँ तक असफलता या निराशा का प्रश्न है, वह हमारी महत्त्वाकांक्षा, उदासीनता, अकर्मण्यता, संकीर्णता, मनोमालिन्यता आदि से उत्पन्न होती है, जो केवल इच्छाओं की परिमितता या समाप्ति द्वारा ही नियंत्रित हो सकती है, इसलिये प्रथमतः हमें

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