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५८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१०
नौकरी करने वाले व्यक्ति भी इस हिंसा से छुटकारा नहीं पा सकते हैं, क्योंकि वे मानवाधिकारों एवं राष्ट्रीय-सम्पत्ति के अभिरक्षक होते हैं। प्रो. मूर्ति दृढ़तापूर्वक कहते हैं-'जैन, बौद्ध, हिन्दू-धर्मग्रन्थों और नीतिज्ञों द्वारा आक्रामक और अन्यायपूर्ण तरीकों से युद्ध करने की निंदा की गई है, परन्तु उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि रक्षात्मक दृष्टि से दोनों पक्ष द्वारा न्यायसंगत तरीके से तथा एकदूसरे के प्रति करुणा और मैत्री भाव रखते हुए युद्ध लड़ा जा सकता है।'२२ __यह हकीकत है कि हमारे समय में भी महात्मा गांधी ने अहिंसक तरीके से विरोध करने की योजना बनाई थी और उस पर उन्होंने और उनके अनुयायियों ने सफलतापूर्वक अमल भी किया था, परन्तु सबके लिए अहिंसक तरीके से सफलतापूर्वक विरोध करना सम्भव नहीं होता है। ऐसा करने का साहस केवल उन्हीं व्यक्तियों में होता है, जो सत्ता और सम्पत्ति के प्रति अनासक्त हो गए हों, यहाँ तक कि जिनमें अपने शरीर के प्रति भी ममत्वबुद्धि नहीं रही है, जिनका हृदय निर्मल हो गया है, वे ही अपने अधिकारों की रक्षा अहिंसक-विधि से कर सकते हैं। पुनः, ऐसा प्रयास केवल सुशिक्षित, सुसंस्कारित और सभ्य समाज में ही परिणामदायी हो सकता है। वस्तुतः, अहिंसक तरीके से विरोध करना भी परिणामदायी हो सकता है, जब प्रतिपक्ष भी पाषाण-हृदय का न होकर इन्सानी हृदयवाला हो। इस प्रकार के प्रयासों की सफलता तब सन्देहास्पद हो जाती है, जब इसका प्रयोग ऐसे व्यक्ति और समाज के साथ किया जाता है, जो मानवीय मल्यों में विश्वास नहीं रखता है और हिंसात्मक तरीकों से स्वार्थपूर्ति को अपना आदर्श मानता है। फिर भी ऐसे कई दृष्टान्त इतिहास के पन्नों में मिलते हैं जब क्रूर व्यक्ति भी एक दिन अहिंसक बन जाता है। ___जहां तक उद्योगजा-हिंसा और दैनिक जीवन के अन्तर्गत नित्यकर्मों में होने वाली हिंसा का प्रश्न है, कोई भी व्यक्ति इससे पीछा नहीं छुड़ा सकता है। एक व्यक्ति, जो कि अपनी आजीविका चलाना चाहता है, भौतिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करना चाहता है, उसके लिए, वनस्पति-जगत् के प्रति संकल्पी हिंसा अपरिहार्य है। जैनधर्म में एक गृहस्थ के लिए संकल्पी हिंसा त्याज्य है, चाहे वह जीवन-निर्वाह या आजीविका चलाने के लिए आवश्यक ही क्यों न हो। इस प्रकार से रक्षात्मक गतिविधियों और युद्धों में होने वाली हिंसा के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का कहना है कि वह यथासंभव कम-से-कम होनी चाहिए। इसप्रकार अबोध एवं निरीह प्राणियों को किसी भी कीमत पर नहीं मारा जाना चाहिए। जैनाचार्यों ने अहिंसक तरीके से युद्ध करने और हिंसा को कम करने के लिए,