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श्रमण, वर्ष ६१, अंक २
अप्रैल-जून १०
सामाजिक क्रान्ति और जैन धर्म
डॉ. आनन्द कुमार शर्मा
[जैन धर्म पर प्राय: यह आरोप लगता रहा है कि निवृत्तिमार्गी धर्म होने के कारण यह समाज से विमुख होने का मार्ग बतलाता है इसलिये इसमें सामाजिक सरोकार का अभाव है। किन्तु जैन साहित्य के सम्यक् एवं निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रारम्भ से ही जैन धर्म समाजोपयोगी सिद्धान्तों का न केवल पुरस्कर्ता रहा है अपितु समाज में उनके सम्यक उपयोग और स्वस्थ समाज के विकास का मार्ग सुझाता रहा है। ऋषभदेव से लेकर महावीर तक सभी तीर्थंकरों ने सामाजिक समता को अपनी देशना का मुख्य आधार बनाया है।
जैन धर्म देश के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। जैन धर्म की प्राचीनता सैन्धव सभ्यता से मानी जाती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि सैन्धव सभ्यता से प्राप्त वृषभ की मूर्तियाँ किसी न किसी रूप में 'ऋषभदेव की प्रतीक रही होंगी। ऋग्वेद में 'ऋषभ' शब्द का उल्लेख हुआ है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि ऋषभ धर्म-प्रवर्तकों में श्रेष्ठ हैं।' अथर्ववेद एवं गोपथ ब्राह्मण में उल्लेखित स्वयंभू काश्यप का तादात्म्य 'ऋषभदेव' से किया जाता है। श्रीमद्भागवत में 'ऋषभदेव' का उल्लेख हुआ है। जैन धर्म ने अपने सामाजिक विचारों एवं मूल्यों से तत्कालीन समाज में दबे-कुचले एवं पिछड़े व्यक्तियों को संबल प्रदान किया। जैन धर्म ने अपने सशक्त साहित्यिक एवं वैचारिक वाङ्मय से समाज में समानता का संदेश दिया जिससे समाज के उत्थान का मार्ग प्रशस्त हुआ। जैन धर्म ने अपनी सैद्धान्तिक विचारधारा से धरातल पर सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया जो इस प्रकार हैसमाजवाद की अवधारणा
_जैन धर्म के सम्पूर्ण वैचारिक वाङ्मय एवं व्यावहारिक धरातलीय दृष्टिकोण के अध्ययन से विदित होता है कि इसमें समाजवाद की विचारधारा के बीज निहित थे। जैन धर्म के सिद्धान्त सम्पूर्ण मानवमात्र के हित एवं समानता का संदेश देते हैं। जैन मनीषियों का व्यवहार भी सैद्धान्तिक विचारधारा से मेल खाता * बालाजी विहार कालोनी, गुडीगुडा का नाका, लश्कर, ग्वालियर-१