Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 76
________________ सामाजिक क्रान्ति और जैन धर्म : ६७ है। उन्होंने मनुष्यों को सात्त्विक जीवन जीने का संदेश दिया। जिसका समाज पर दूरगामी प्रभाव होना निश्चित था। सात्त्विकता, मनुष्य के जीवन को सरल, निर्विकार, चरित्र सम्पत्र और नैतिकतावादी बनाता है। यह संदेश ऐसे समय आया जब समाज नैतिक रूप से पतित होता जा रहा था, मनुष्यों का जीवन जटिल, अव्यावहारिक व्यवस्थाओं में जकड़ा हुआ था। भारतवर्ष का विशाल जन समूह आर्थिक विपन्नता के बोझ के नीचे दबा था। समाज में ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी का भाव विद्यमान था और इस कारण समाज का बहुत बड़ा तबका आर्थिक एवं सामाजिक अधिकार विहीन था। ऐसे समय में जैन धर्म ने अपरिग्रह एवं सम्यक् आचरण का सन्देश दिया। इसमें आर्थिक समानता एवं सर्वोदय की समाजवादी विचारधारा निहित थी। अपिरग्रह अर्थात् उतना ही संग्रह करो, जितना आवश्यक हो। इससे समाज के सभी लोगों को वस्तुएँ मिल सकेंगी। अपरिग्रह आवश्यकताओं के अनन्त फैलाव पर तार्किक रोक का सन्देश देता है। इससे इच्छाओं पर नियंत्रण होता है और समाज में असामाजिकता एवं असन्तुलन की स्थिति पर लगाम लगती है। जैन धर्म समानता का सन्देश देता है। जैन धर्म ने समाज में ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, जाति-पांति, स्त्री-पुरुष सभी को एक निगाह से देखा। महावीर स्वामी ने संघ में सभी का स्वागत किया एवं उन्हें मान्यता प्रदान की। जैन संघों एवं जैन धर्म के अनुयायियों ने अनेक समाज-हितैषी कार्य किये जिनसे समाज के प्रत्येक वर्गों मुख्यतः दलित एवं निर्धनों को अत्यधिक लाभ हुआ। जैन धर्मावलम्बियों ने औषधालय, विश्रामालयों, शिक्षण संस्थाओं आदि की निःशुल्क व्यवस्था की जिससे निर्धनों एवं निचले तबके के लोगों के प्रति दयाभाव, अनुग्रह एवं दान भावना की प्रवृत्ति बढ़ी। नारी की स्थिति में क्रान्तिकारी बदलावों का सूत्रपात भारतीय संस्कृति में स्त्री को सर्वशक्ति-सम्पन्नता एवं सर्वगुण-सम्पन्नता के प्रतीक के रूप में आख्यायित किया गया है। उसको पुरुष की पूर्णता के लिए आवश्यक माना गया। उसके जीवन में स्त्री का आगमन शुभ एवं सुख-समृद्धि तथा सम्मान का प्रतीक माना गया है। जैन धर्म में नारी को सामाजिक तथा धार्मिक कार्यों को करने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। जैन धर्म ने पर्दा-प्रथा, सतीप्रथा, बाल-विवाह, बालिका-हत्या, अशिक्षा आदि बुराइयों एवं कुरीतियों से दूर रहकर पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी अपने विकास की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की। वह अपनी इच्छानुसार व्रत, दान आदि कर सकती थीं। उसे समाज एवं घर

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