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६८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१०
परिवार में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। जैन कला में भी नारी देवी, यक्षी, आर्यिका, श्राविका, साध्वी आदि रूपों में अंकित है, जो नारी के महत्त्व की समाज में प्रधान स्थिति को इंगित करता है। महावीर स्वामी ने नारी को 'धम्म-सहाया' कहकर धर्म की सहायिका मानकर आदर और सम्मान प्रदान किया। वे स्त्री-समाज के समानाधिकार के पूर्ण पक्षपाती थे। महावीर स्वामी ने उन्हें मोक्षाधिकार भी प्रदान किया। उन्होंने स्त्रियों के लिए संघ के द्वार खोल दिये। जैन धर्म में श्रमणी और श्राविका ये दो वर्ग नारियों के ही थे। भद्रबाहु कृत कल्पसूत्र में वर्णित है कि पार्श्वनाथ के अनुयायी भिक्षु १६,०००, भिक्षुणियाँ ३८,०००, श्रावक १,६४,००० तथा श्राविकायें ३,२७,००० थीं। अतः स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ के अनुयायियों में स्त्रियों की संख्या सर्वाधिक थी। महावीर स्वामी के जैन संघ में ३६,००० श्रमणियाँ, १४,००० श्रमण, १,५९,००० श्रावक एवं ३,१८,००० श्राविकाएँ थीं। अतः जैन संघ में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक थी। वास्तव में स्त्रियों को भिक्षुणियों के रूप में स्वीकार करना एक क्रान्तिकारी कदम था। वर्ण-निरपेक्ष आन्दोलन का सूत्रपात
जैन धर्म ने सर्वप्रथम वर्ण-व्यवस्था की बुराइयों पर गंभीर चिंताएं प्रगट करते हुए जाति-बंधन एवं जाति-भेद की भर्त्सना की। महावीर स्वामी के समय प्राचीन अन्धविश्वासों, कर्मकाण्डों और वर्ण-व्यवस्था की विशाल दीवारें जर्जरित हो रही थीं, प्रबल गवेषणा, सत्यानुसंधान एवं रहस्योद्घाटन की दुर्धर्ष उत्कण्ठा के इस काल में उन्होंने समाज को सन्मार्ग दिखाया। महावीर स्वामी के अनुसार सभी व्यक्ति चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों पुरुषार्थ द्वारा निर्वाण अर्थात् सर्वोच्च पद प्राप्त कर सकते हैं, अतः निर्वाण प्राप्ति हेतु उन्होंने जाति-भेद को समाप्त कर दिया। सूत्रकृतांग में जात्याभिमान को १८ पापों में एक पाप माना गया है। महावीर स्वामी ने निर्वाण-प्राप्ति की योग्यता का वर्णन करते हुए कहा है__"जो न अभिमानी है और न दीनवृत्ति वाला है, जिसकी पूजा-प्रशंसा में उन्नत भाव नहीं है, और न निन्दा में अवनत भाव है, वह ऋजुभाव को प्राप्त संयमी महर्षि पापों से विरत होकर निर्वाण मार्ग को प्राप्त करता है।"१२ अतः जैन संघ ने जाति भेद को परे रखकर एवं समानाधिकार प्रदान कर समस्त जातियों के लिए प्रव्रज्या के द्वार खोल दिये। महावीर स्वामी ने समाज में कर्म की प्रधानता को बतलाया। उन्होंने मनुष्य को ईश्वरीय हस्तक्षेप से मुक्त करके स्वयं अपना