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६२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल
- जून - १०
वह
जो व्यक्ति या समाज धर्म के सम्बन्ध में विवेकपूर्ण दृष्टिकोण रखता है, निश्चित ही मताग्रही और असहिष्णु नहीं होगा ।
मतान्धता और धर्मान्धता निरपेक्षवाद / एकान्तवाद की सन्तानें हैं। एक चरमपंथी या निरपेक्षवादी समझता है कि जो कुछ वह प्रतिपादित करता है या कहता है, वही सत्य है और जो कुछ भी दूसरे कहते हैं, वह मिथ्या है, जबकि सापेक्षतावादी चिन्तक का दृष्टिकोण यह होता है कि यदि किसी वस्तु, विचार, घटना आदि के सम्बन्ध में दो भिन्न-भिन्न संदर्भों में विचार किया जाए तो वह और उसका प्रतिपक्षी दोनों ही सही हो सकते हैं। इस प्रकार सापेक्षतावादी चिन्तक अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु - दृष्टिकोण अपनाता है। जैनाचार्य द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर ही धार्मिक सहिष्णुता की अवधारणा आधारित है। जैनाचार्यों की दृष्टि में अहिंसा ही धर्म का सार है। उसी से अनेकान्तवाद या स्याद्वाद की अवधारणा उत्पन्न होती है। एकान्तवाद या निरपेक्षवाद विचारों की हिंसा' का प्रतिनिधित्व करता है। वह अपने विरोधियों की विचारधारा और जीवनमूल्यों का खण्डन करता है और इस प्रकार दूसरों की भावनाओं को चोट पहुँचाता है। अनेकान्तवाद अहिंसापूर्वक सत्य की खोज करता है।
जैनाचार्यों का अनेकान्तवाद व्यक्ति को मतान्ध होने की अनुमति नहीं देता है और उसकी एकांगी सोच को भी निषिद्ध करता है। वह तो उदार दृष्टिकोण और माध्यस्थ-भाव का समर्थन करता है। यही एकमात्र उपाय है, जिसके द्वारा धर्मों एवं विचारधाराओं में विविधता के कारण उत्पन्न संघर्षों को सुलझाया जा सकता है। अनेकान्तवाद अपने विरोधियों के विचारों को भी सत्य मानकर उनका आदर करता है। जैसा कि सिद्धसेन दिवाकर (ईसा की पांचवी शताब्दी) कहते हैं- 'सभी सम्प्रदायों की विचारधारायें अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य हैं, वे असत्य तभी होती हैं, जब वे अपने से विरोधी विचारधाराओं की सत्यता का निषेध करती हैं। अनेकान्तवाद की समझ रखने वाला उन्हें सत्य और मिथ्या की कोटि में विभाजित नहीं करता है। वे मिथ्या तभी होते हैं, जब वे दूसरों के सत्य - मूल्यों को पूर्णरूप से नकारते हैं। '२७ अनेकान्तवाद की इसी उदारदृष्टि ने जैनाचार्यों में सहिष्णु सोच विकसित की है।
जैनाचार्यों के इस सहिष्णु नजरिए का प्रतिपादन करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी (१७वीं शताब्दी) निश्चयपूर्वक कहते हैं- 'एक सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी धर्म की अवमानना नहीं करता है, बल्कि सभी धर्मों के साथ उसी प्रकार से समान व्यवहार करता है, जिस प्रकार से एक पिता अपने लड़कों के