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जैन धर्म में शांति की अवधारणा : ६१
यद्यपि जैनधर्म में त्रिरत्नों में से एक- सम्यग्दर्शन, अर्थात् सम्यक्श्रद्धा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु अन्धश्रद्धा असहिष्णुता की जननी है, इसलिये जैनधर्म कभी भी अन्धश्रद्धा का समर्थन नहीं करता है। जैनाचार्य निश्चय पूर्वक कहते हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान का अनुगामी होना चाहिए। सम्यक् ज्ञान या तर्कबुद्धि द्वारा अनुमोदित श्रद्धा, अन्धी नहीं हो सकती है। जैनाचार्यों के अनुसार विवेक और श्रद्धा एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों के बीच कोई विवाद नहीं है। वे इस बात को दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि विवेकरहित श्रद्धा अन्धी होती है
और सम्यग्दर्शन (श्रद्धा/विश्वास/आस्था) का विकास, सम्यक् ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। वे कहते हैं कि धार्मिक आचार के नियमों का प्रज्ञापूर्वक समीक्षा या मूल्यांकन किया जाना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम, पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य केशी के समक्ष अपने इस विचार को दृढ़तापूर्वक रखते हैं कि दोनों की संघ-व्यवस्था में (परम्परा में) आचार के बाह्य निषेधों में जो अन्तर है, उसका तर्क या विवेक के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए। वस्तुतः, विवेकबुद्धि के आधार पर ही विधिनिषेधों या धार्मिक-विचार के नियमों की सत्यता का सम्यक् मूल्यांकन हो सकता है।५
यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि धर्म केवल श्रद्धा या विश्वास या आस्था पर आधारित है और विवेक का इसमें कोई स्थान नहीं है, तो वह निश्चित तौर पर एक ऐसा एकांगी दृष्टिकोण अपना रहा है, जो यह मानकर चलता है कि केवल उसके धर्मगुरु ही मानवजाति को संकट से उबार सकते हैं; उसकी साधना पद्धति ही परमश्रेय (मोक्ष) की अनुभूति करा सकती है और उसके धर्मग्रन्थ में वर्णित आचरण-संहिता और नियम ही समीचीन हैं, तो ऐसा व्यक्ति अपने धार्मिक नियमों का तर्कबुद्धि/प्रज्ञा/विवेक के आधार पर मूल्यांकन करने में असमर्थ रहता है। इसके स्थान पर यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि धार्मिक-जीवन में विवेक/प्रज्ञा/तर्कबुद्धि की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, तो वह निश्चित ही अपने धार्मिक नियमों/सिद्धान्तों या रीति-रिवाजों का विवेकबुद्धि से मूल्यांकन या समीक्षा कर सकता है। एक रागी व्यक्ति इस कथन में विश्वास करता है जो मेरा है, केवल वही सत्य है, जबकि एक वीतरागी इस कथन में विश्वास करता है-'जो सत्य है, वह मेरा है।' आचार्य हरिभद्र कहते हैं-'न तो महावीर के प्रति मेरा मोह है, न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष; जिसकी भी बात युक्तिसंगत है, उसे हमें ग्रहण करना चाहिए।'२६ इस प्रकार जब धर्म विवेकाभिमुख होता है, तो वहां अन्धविश्वास या असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं होता है, अत: