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५४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१०
जितनी मात्रा में कम होगी, जीवन में शान्ति उतने ही अनुपात में अधिक होगी। इस प्रकार जब मनुष्य में राग-वृत्ति या आसक्ति समाप्त हो जाती है, तो वह मानसिक तनावों और मनोविकारों से मुक्त हो जाता है। अपरिग्रह : आर्थिक असमानता का समाधानकारी तत्त्व
राग-वृत्ति या आसक्ति सत्ता, स्वामित्व और संग्रह की इच्छा को जन्म देती है। यह हमारी लालच वृत्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। कहा गया है- “लोभवृत्ति सभी दुःखों, कष्टों का मूल है। यह सभी सद्गुणों को नष्ट करने वाली होती है।"५ क्रोध, अहंकार, प्रमाद, धोखेबाजी, आदि सभी राग-भाव, मेरेपन का भाव या लोभ-वृत्ति की ही प्रशाखाएँ हैं। हिंसा, जिससे हमारी मानसिक और सामाजिक शान्ति प्रभावित होती है, स्वामित्व की इच्छा की परिणति है। सूत्रकृतांग (१/ २/२) में कहा गया है- “जिनके पास जो कुछ भी प्रिय, छोटी या बड़ी, सजीव या निर्जीव वस्तुओं का संग्रह है, वे दुःखों और द्वन्द्वों से छुटकारा नहीं पा सकते हैं।" स्वामित्व और संग्रह, समाज में आर्थिक-असमानता के अगुआ हैं, जिनके कारण युद्ध होते हैं, अतः समाज में शान्तिपूर्ण वातावरण और अहिंसा आधारित आचरण-संहिता को प्रभावी बनाने के लिए, स्वामित्व और संग्रह की इच्छा पर लगाम कसना सबसे पहली जरूरत है। इसीलिए, भगवान महावीर ने श्रमणश्रमणियों के लिए पूर्ण अपरिग्रह का और श्रावक-श्राविकाओं के लिए स्वामित्व
और संग्रह की सीमा (परिग्रह-परिमाणव्रत) बांधने का और उपभोग पर नियंत्रण (उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत) करने का विधान प्रस्तुत किया है। जैनधर्म का मानना है कि यदि हम पृथ्वी पर शान्ति चाहते हैं, तो समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता की गहरी खाई को पाटना होगा और उपभोग के स्तर में विद्यमान व्यापक अन्तर को न्यून स्तर पर लाना होगा। युद्ध और हिंसा के कारणों में स्वामित्व की इच्छा प्रमुख है, क्योंकि इसके कारण समाज में आर्थिक-असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न होती है। परिणामस्वरूप, समाज में अमीर और गरीब वर्ग अस्तित्व में आते हैं तथा वर्ग-संघर्ष एवं शोषण-वृत्तियों का उदय होता है।
जैनाचार्यों के अनुसार हम अपने स्तर पर स्वामित्व, संग्रह और उपभोग की सीमाएं निर्धारित कर इस पृथ्वी पर आर्थिक-खुशहाली और शान्तिपूर्ण वातावरण की पुनर्स्थापना कर सकते हैं। अहिंसा : मानसिक एवं सामाजिक शान्ति की पुनर्स्थापना का सर्वोच्च सिद्धान्त
__ मानसिक-शान्ति, आभ्यन्तरिक अनुभूति है। जब इसके आधार पर सामाजिक जीवन में व्यवहार किया जाता है, तो यह अहिंसा कहलाती है। अहिंसा,