________________
जैन धर्म में शांति की अवधारणा : ५३
गृहस्थ के लिए छः आवश्यक कर्तव्यों (षडावश्यक) का विधान किया गया है, उसमें सामायिक-कर्तव्य का प्रथम स्थान है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि मानसिक-समता या चित्त-शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? जैन-विचारणा के अनुसार, वीतराग-भाव या अनासक्त-भाव की साधना द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः, राग-भाव ही हमारी चित्त-अशांति या मानसिक-तनाव का एकमात्र कारण है।
जैसा कि मैं पूर्व में कह चुका हूँ कि मानसिक तनाव हमारे युग की ज्वलंत समस्याओं में से एक है। ऐसे राष्ट्र, जो अधिक सुसभ्य एवं सुशिक्षित होने का दावा करते हैं तथा आर्थिक-दृष्टि से समृद्धशाली हैं, वे अपेक्षाकृत अधिक मानसिक-तनावग्रस्त हैं। जैनधर्म का सर्वोच्च लक्ष्य, मनुष्य को दुःखों और मानसिक-तनावों से मुक्त करना है। इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम हमें मानसिक तनावों के कारणों को जानने का प्रयास करना चाहिए। जैनधर्म की दृष्टि में मानवजाति का दुःख, दैहिक या भौतिक न होकर चैत्तसिक या मानसिक है। मानसिक तनावों के मूल में पदार्थों के प्रति हमारी राग-वृत्ति है। यह राग-वृत्ति ही सभी दुःखों का मूल है। प्रसिद्ध जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लिखित है- "मनुष्य हो या देवता, सभी के मानसिक एवं शारीरिक दुःखों का मूल राग-भाव ही है। राग, मानसिक-तनावों का मूल है। सांसारिक सुखों के प्रति अनासक्त दृष्टि या निर्ममत्व बुद्धि ही मानवजाति को मानसिक तनावों से छुटकारा दिला सकती है।"१३ श्रमण भगवान् महावीर के अनुसार इन्द्रिय-सुखों के प्रति, रागात्मक वृत्ति बनी रहने से ही, मनुष्य इस विषम सांसारिक-चक्र में परिभ्रमण करता रहता है। वे कहते हैं- "जिस व्यक्ति को मोह नहीं रहा है, उसने समस्त दुःखों को नष्ट कर दिया है, और जिस व्यक्ति में तृष्णा नहीं रहती है, उसने लोभ को मिटा दिया है। जिस व्यक्ति में लोभ नहीं रहा है, उसने तृष्णाओं का नाश कर दिया है, और जो व्यक्ति राग-वृत्ति या तृष्णा से मुक्त हो गया है, उसने इच्छाओं को मिटा दिया है और जिसमें इच्छा ही नहीं रही, वह सर्वदुःखों से मुक्त हो गया है।"४ वस्तुतः भौतिक पदार्थों द्वारा मानवीय इच्छाओं की पूर्ति करने का प्रयास करना तो इच्छारूपी जड़ों को सींचने के समान ही है, जिसके परिणामस्वरूप नित नई-नई इच्छाओं की शाखाएं प्रस्फुटित होती हैं। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सांसारिक-सुखों के प्रति लालसा और राग-वृत्ति ही मानवजाति के समस्त दुःखों और द्वन्द्वों का एकमात्र कारण है।
यदि मनुष्य तनावमुक्त होना चाहता है, तो उसे जीवन के प्रति अनासक्तदृष्टि, निर्ममत्व-बुद्धि विकसित करनी होगी। जैनधर्म का यह विश्वास है कि आसक्ति