Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ जैन धर्म में शांति की अवधारणा : ५१ आत्मशान्ति या मानसिक-शान्ति बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। जैनागमों में शान्ति के महत्त्व और स्वभाव के सम्बन्ध में पक्के प्रमाण मिलते हैं। सूत्रकृतांग में कहा गया है-'जिस प्रकार से पृथ्वी प्राणी जगत् की निवासस्थली है, उसी प्रकार से वर्तमान में जो आत्माएं आत्मज्ञान से प्रकाशित हैं, भूतकाल में जो थीं और भविष्य में जो होंगी- वे शान्ति की निवासस्थली हैं।" ये आत्माएं आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त कर चुकी हैं और सदैव शांतअवस्था में रहती हैं तथा शांति का उपदेश देती हैं। जैनाचार्यों की दृष्टि में शांति का अभिप्राय मन की शान्त-अवस्था से है, इसलिए वे शान्ति शब्द को समभावअवस्था या समता से समानीकृत करते हैं। शान्ति मानसिक-समता और सामाजिक-समानता पर निर्भर करती है। जब मानसिक-समता खण्डित होती है, तो मनःशान्ति भंग होती है, ठीक इसी प्रकार से जब सामाजिक-समानता, असमानता का रूप ले लेती है, तो सामाजिक शान्ति भंग हो जाती है। जैनधर्म, धर्म के रूप में मानसिक समता और सामाजिक-समानता की साधना के अलावा कुछ नहीं है। इसके लिए वे विशेष रूप से प्राकृत-भाषा का शब्द 'समाइय' (समता) का उपयोग करते हैं, जो जैनधर्म की मूल अवधारणा है। यह वह धुरी है, जिसके चारों और सम्पूर्ण जैनधर्म परिभ्रमण करता है। अंग्रेजी-भाषा भिन्नभिन्न सन्दर्भो में, 'समाइय' शब्द के विविध अर्थों का संकेत करती है जैसे-समता, समानता, सहिष्णुता, सद्भाव, पूर्णशांति, न्यायसंगतता, आदि। कभी-कभी इस शब्द का अर्थ मन की सन्तुलित अवस्था से लिया जाता है, जिसमें मन भावनात्मक-आवेगों-संवेगों, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, सफलता-असफलता आदि से अकम्प-अडोल या अविचलित रहता है, तो कभी इसका अर्थ एक ऐसे व्यक्तित्व से लिया जाता है, जो राग-द्वेष के दुष्चक्र से पूर्णतया मुक्त हो गया है, अर्थात् एक पूर्णतया शांत व्यक्तित्त्व। 'समता' या शान्ति' शब्द की ये आभ्यन्तरिक परिभाषाएं हैं, परन्तु जब इस शब्द का उपयोग बाह्य रूप में किया जाता है, तो इसका अर्थ प्राणीजगत् में समानता की भावना से लिया जाता है और तब यह सामाजिक-समानता और सामाजिक सद्भाव का संदेश सम्प्रेषित करता है। शान्ति या समता-जीवन का चरम लक्ष्य जैन-विचारकों के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य हमारे मूलभूत स्वभाव, अर्थात् शान्ति या समता की स्थिति को प्राप्त करना है। जैनधर्म के सबसे प्राचीन ग्रन्थ आचारांगसूत्र में हम धर्म की दो परिभाषाएँ पाते हैं। एक-शान्ति के रूप में और दूसरी-अहिंसा के रूप में। श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं-"महात्मा

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130