Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 56
________________ जैन धर्म में शांति की अवधारणा : ४७ वस्तु खो चुकी है, वह मानसिक-शांति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती है। विज्ञान और तकनीकी विकास ने हमें जीवन की सुख-सुविधा के सभी साधन प्रदान किए हैं। फलस्वरूप, पृथ्वी पर जीवन आज जितना विलासी और सुखद हो गया है, उतना पहले कभी नहीं था। फिर भी, मनुष्य की भौतिकवादी और स्वार्थी-सोच तथा शंकालू-स्वभाव के कारण कोई भी प्रसन्न और सुखी नहीं है। हम हर समय तनाव में रहते हैं, यहाँ तक की हम गहरी नींद से भी वंचित हो गए हैं। जो लोग भौतिक रूप से अधिक समृद्धशाली हैं तथा जिनके पास जीवन की सभी सुख-सुविधाएँ हैं, वे अधिक तनावग्रस्त हैं। समृद्धशाली राष्ट्रों के चिकित्सा और मनोवैज्ञानिक प्रतिवेदनों से इस तथ्य की पुष्टि होती है। धनाढ्यवर्ग में मादक पदार्थों और नशीली-दवाइयों के सेवन की बढ़ती हुई प्रवृत्ति से भी यह बात प्रमाणित होती है। सच तो यह है कि मानसिक-शान्ति की कीमत पर हमने भौतिक-विकास के पायदानों को तय किया है। इतना ही नहीं, हम अपनी नैसर्गिक-जीवनशैली से भी वंचित हो गए हैं। श्री एस. बोथरा कहते हैं"दुर्भाग्य से यह हुआ है कि महत्त्वाकांक्षा और सफलता के उन्माद में हम नैसिर्गिक-अनुशासन को भूल चुके हैं, जो हमें पशुजगत् से वंशानुगत हस्तांतरित हुआ है।"२ तकनीकी और वैज्ञानिक-ज्ञान के क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति के साथ ही हमने न केवल सामाजिक और धार्मिक नियंत्रक-तत्त्वों, अपितु नैसर्गिक - नियंत्रक-तत्त्वों को भी स्वीकार करना छोड़ दिया है। आज स्थिति यह है कि हमारी जीवनरूपी गाड़ी को गति देने के लिए एक्सीलरेटर तो है, परन्तु उसे नियंत्रित करने के लिए उसमें ब्रेक नहीं है। हमारी इच्छाओं की कोई सीमा नहीं है। ये सदैव अपूर्ण ही रहती हैं, जिससे मनुष्य निराशाग्रस्त होकर उदासीन हो जाता है। ये निराशाएँ और उदासीनताएँ हमारे तनाव का कारण हैं। वर्तमान समय में यातायात के सर्व-सुलभ साधन उपलब्ध होने से भिन्न-भिन्न राष्ट्रों, संस्कृतियों और धर्मों के लोगों से सम्पर्क करने में भौतिक-दूरी अब बाधा नहीं रही है और इस दृष्टि से हमारा विश्व सिमट रहा है, परन्तु दुर्भाग्य से भौतिकवादी और स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण के फलस्वरूप हमारे दिलों की दूरियाँ दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। हम आपस में पारस्परिक-प्रेम, सहयोग और विश्वास विकसित करने के बजाय आपसी घृणा और शत्रुता को ही बढ़ावा दे रहे हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सही कहा था-"मनुष्य के लिए एक-दूसरे के निकट आकर भी मानवीय दायित्त्वों (मानवीय गुणों) की उपेक्षा करना निश्चित ही मानवजाति की आत्महत्या की ही प्रक्रिया होगी।"३

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