Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ अप्रेल-जून १० जैन धर्म में शांति की अवधारणा प्रो. सागरमल जैन अनु. डॉ. राजेन्द्र कुमार जैन [विद्वान् लेखक के अंग्रेजी आलेख का यह अनुवाद लेखक की अन्तर्वेदना को प्रकट करता है। आज जो जीवन में अशांति का कारण है वह है तनाव, अनन्त इच्छाओं का मकड़जाल (राग-द्वेष भाव) इत्यादि। वस्तुतः दुःख या तनाव शारीरिक या भौतिक कम हैं और मानसिक अधिक हैं। अतः? यदि मन की चञ्चलता, तृष्णा, लोभ, आसक्ति, ममत्व आदि वृत्तियों को संयमित कर लिया जाता है, तो परम शांति सुलभ है, अन्यथा असंभव है। अहिंसा, अपरिग्रह, वीतरागता, सहिष्णुता, अनेकान्त दृष्टि इन सभी शब्दों का लक्ष्य एक ही है 'शान्ति' या परम शान्ति। शान्तिपूर्ण जीवन और सामाजिक-वातावरण : युगीन-आवश्यकता : वर्तमान समय विज्ञान और तकनीकी का युग है। वैज्ञानिक-ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के परिणामस्वरूप हमारे धार्मिक-अंधविश्वासों और मिथ्या-धारणाओं का अन्त हुआ है। दुर्भाग्यवश इस प्रगति के कारण हमारे पारस्परिक-विश्वास, नैतिक और आध्यात्मिक-मूल्यों में उत्तरोत्तर गिरावट भी आई है। वैज्ञानिक-ज्ञान और तकनीकी-सोच के विकसित होने से एक ओर तो मानवता के सूत्र में जोड़ने वाली कड़ी के रूप में काम करने वाले, धार्मिक-आस्थाओं पर आधारित परम्परागत सामाजिक और आध्यात्मिक-जीवनमूल्य अप्रासंगिक हो गए हैं तथा दूसरी ओर शांतिपूर्ण और सार्थक-जीवन जीने के लिए नवीन-मूल्यों पर आधारित सामाजिक-व्यवस्था हम आज तक विकसित नहीं कर पाए हैं। हम पूर्णतया अस्तव्यस्त या अराजक-स्थिति में जीवन जी रहे हैं। वस्तुतः, वर्तमान समय परिवर्तनों का युग या संक्रमण काल या सन्धि-युग है, क्योंकि पुराने मूल्य अप्रासंगिक हो गए हैं और नवीन मूल्य स्थापित नहीं हुए हैं। परमाणु शक्ति और व्यवस्था के संबंध में भी हमारा ज्ञान उत्तरोत्तर विकसित हुआ है, फलस्वरूप मानव-समाज में शांतिमय वातावरण को स्थापित करने के लिए और साथ ही एक सच्चे रक्षक के रूप में भी आज हम उसी पर पक्का भरोसा करते हैं तथा इस सन्दर्भ में धार्मिक-आध्यात्मिक मूल्यों को अंधविश्वास कहकर खारिज कर देते हैं। श्री डी.आर. मेहता ने सही कहा है-'वर्तमान समय में विश्व-समुदाय अपने दैनिक

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