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४६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१०
जीवन में धर्म से विमुख होता जा रहा है, व्यावसायिक या उद्योगजा हिंसा का विस्तार बृहत् रूप ले चुका है तथा प्राणीजगत् (मनुष्य हो या पशु या जीवन के अन्य रूप) के प्रति मानवीय संवेदना आनुपातिक रूप से कम हुई है।" आज, मनुष्य हमारे लिए या तो एक जटिल मशीन के समान है या कम से कम एक विकसित पश, जो यंत्रवत तर्कों से सम्पन्न और नैसर्गिक-प्रेरणाओं से संचालित है। इस प्रकार मानव-समाज में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णतया भौतिकवादी
और स्वार्थी-दृष्टिकोण विकसित हो चुका है। यद्यपि वैज्ञानिक-प्रगति हुई है, परन्तु हमारे पाशविक-वृत्तियों और स्वार्थी-स्वभाव का किंचित् भी परिष्कार नहीं हुआ है। हमारे अन्दर पाशविक-वृत्तियां अधिक प्रबल हैं, जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक-जीवन को संचालित कर रही हैं। परिणामस्वरूप, हमारा जीवनव्यग्रताओं, उत्तेजनाओं, मनोविकारों और मानसिक-तनावों से व्याप्त है। जो राष्ट्र आर्थिक-दृष्टि से जितना अधिक समृद्धशाली है, वहाँ मानव-समाज में इन दुष्टप्रवृत्तियों की जड़ें उतनी ही अधिक गहरी हैं। तनाव को इस युग का एकमात्र विशिष्ट लक्षण निरूपित किया जा सकता है। आजकल, व्यक्ति विशेष ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानवजाति तनाव में ही जी रही है। ___ यद्यपि, दिखावे के लिए या ऊपरी तौर पर तो हम शांतिपूर्ण तौर-तरीकों और अहिंसामय आचरण की वकालत करते हैं; परन्तु हृदय से तो हम भी जंगलकानून, अर्थात् 'जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धान्त में ही दृढ़ विश्वास रखते हैं। वस्तुतः, हम केवल अपनी पाशविक-वृत्तियों की सन्तुष्टि के लिए ही जी रहे हैं, फिर चाहे हम उच्च सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों की बातें क्यूं न करें। जीवन का यह दोहरापन या कथनी-करनी में अन्तर ही एकमात्र कारक है, जो हमारे व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक-वातावरण में अशान्ति फैलाता है। एक बार जब हम उच्चस्तरीय जीवन-मूल्यों को प्रभावहीन होता देखते हैं, या हमारे विश्वास को चोट पहुंचती है, तो हम प्रत्येक व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र को शंका भरी दृष्टि से देखने लगते हैं, निश्चित तौर पर यह विक्षुब्ध मानसिकता का प्रतीक है। __भौतिकवादी और यन्त्रवत् दृष्टिकोण के कारण हमारी विश्वास-भावना का आधार कमजोर हुआ है। जब पारस्परिक-विश्वास, सहयोग और सह-अस्तित्त्व के उच्चस्तरीय जीवन-मूल्यों के प्रति विश्वास टूटता है, तो संदेह का जन्म होता है। संदेह, भय का कारण है। भय, हिंसा को स्थान देता है। हिंसा, प्रतिहिंसा के लिए प्रेरित करती है। वस्तुतः, हिंसा हमारे भौतिकवादी-दृष्टिकोण और शंकालुस्वभाव की परिणति है। वर्तमान समय में मानवजाति अपनी जो सबसे बहुमूल्य