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४२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून १०
द्वारा साकार कर दिया है। कुवलयचन्द्र को जब मायावी अश्व उड़ाकर ले गया तो उसके वियोग में उसकी माँ प्रियंगु श्यामा पछाड़ खाकर गिर पड़ी। उसकी हालत पागलों जैसी हो गयी। ३ माता का दुःख पुत्र को भी सहन नहीं होता । वह अपनी माता के अपमान के लिए बड़े से बड़े शत्रु से भिड़ने को तैयार हो जाता है चाहे वह उसका पिता ही क्यों न हो। राम द्वारा सीता के परित्याग को सीता तो यह कहकर सहन कर गई कि हे राम ! आप एक वृक्ष से भी बौने हो गये। वृक्ष मरते दम तक अपने से लिपटी लता को नहीं त्यागते, जबकि आपने मुझे त्याग दिया। नर और नारी के स्वभाव में यही अंतर है । ३४ किन्तु सीता के पुत्र अपनी माता के पराभव को नहीं भूल सके।
प्राकृत जैन साहित्य में अंकित माता का इतना सम्मान होते हुए भी हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा के दूसरे भव की कथा में जालिनी नामक माता को कुमाता के रूप में चित्रित किया है। वह अपने पुत्र को दुःख देने के नयेनये कुचक्र रचती रहती है । अन्ततः पुत्र शिखीकुमार को अपने हाथों से मार डालती है। सम्भवतः ऐसी कुमाता के प्रसंग उस समय अपवाद रहे हों अथवा पूर्वजन्मों के कर्मों के निदान के कारण माता को ऐसे दुष्कृत्य करने पड़े हों। धर्म-पालन और व्रताचरण में अग्रसर नारी
नारियों को साधारणतः धर्मभीरु, व्रत-उपवास में तत्पर, देव - देवियों और साधु-साध्वियों आदि की आराधना में अग्रसर दिखाया गया है। नारियों की यह प्रवृत्ति कुछ प्रकृति और कुछ परिस्थितियों के कारण अपेक्षाकृत अधिक ही रही है। इसका चित्रण भी समस्त भारतीय साहित्य में समान रूप से हुआ है। अपभ्रंश के साहित्यकारों ने भी इसके अनेक उदाहरण संजोये हैं। नारियों ने एक ओर 'तो क्रमशः अभ्यास करते हुए यथाविधि जिनदीक्षा ग्रहण की और दूसरी ओर समय-समय पर पर्वाराधन, तपश्चरण, साधु-भक्ति, देवाराधन, रात्रि - भोजन त्याग आदि में भी एकांकी या सामूहिक रूप से भाग लिया।
नारी - जीवन और उसके गौरव तथा अपमान से जुड़े हुए कुछ प्रासंगिक चित्र अन्य प्राकृत साहित्य में भी मिलते हैं। कन्या के विवाह के समय या उसके विदाई में पिता अपनी शक्ति भर धन-धान्य देता था। पिता द्वारा दक्षिणा स्वरूप विभिन्न वस्तुओं को भेंट स्वरूप देने का उल्लेख समराइच्चकहा में है । ३६ कुवलयमाला के पिता ने भी बेटी के विदाई के समय धन-धान्य आदि दिया
था। किन्तु इसे आज की दहेज-प्रथा से नहीं जोड़ा जा सकता। इसी प्रकार विधवाजीवन के भी दो-तीन प्रसंग यहाँ उपलब्ध हैं । ३७ किन्तु वे उतने कष्टदायक नहीं