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३० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१० के अन्तर्गत आते हैं।
२. पृच्छना- पढ़े या सुने हुए ज्ञान के बारे में कोई शंका हो या उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो तो उसके बारे में जिज्ञासावृत्ति से प्रश्न पूछना ताकि विषय स्पष्ट हो जाये 'पृच्छना' कहलाता है। इससे ज्ञान सम्यक् बनता है। जैन पद्धति में प्रश्नोत्तर को पृच्छना का अंग माना गया है।
३. परावर्तना- पूर्व पठित ज्ञान को बार-बार स्मरण करना या उसका पुनः-पुनः पारायण करना ताकि पाठ भूले नहीं 'परावर्तना' कहलाता है। बारबार याद करने से ज्ञान स्मृति में स्थायी रूप से स्थिर हो जाता है।
४. अनप्रेक्षा- ज्ञान के बारे में निरन्तर चिन्तन-मनन करना तथा पठित ज्ञान को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझना. 'अनुप्रेक्षा' कहलाता है। इससे ज्ञान में व्यापकता आती है। अनुप्रेक्षा द्वारा स्वाध्यायी ज्ञान से गम्भीरता प्राप्त करता है। ५. धर्मकथा- जब स्वाध्यायी ज्ञान को ग्रहण कर उसे निश्शंक कर लेता है तब उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने निर्मल ज्ञान के स्रोत से अन्य लोगों को ज्ञान देकर उनके ज्ञान में अभिवृद्धि करे। साधक वार्ता, चर्चा, प्रवचन, अध्यापन, प्रश्नोत्तर इत्यादि द्वारा अपने ज्ञान को भी सुदृढ़ करता है एवं समाज को भी लाभान्वित करता है। जीवन का सर्वांगीण विकास . ... उपरोक्त विवेचन से यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि भारतीय शिक्षा ने जीवन के भौतिक अंगों की उपेक्षा की है। हमारे यहाँ शास्त्रों में जीवन के समग्र अंगों को लिया गया है। पुरुषार्थ द्वारा जीवन के सम्पूर्ण अंगों का विकास करना शिक्षा का उद्देश्य है। इसको स्पष्ट करने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लें। अगर नदी के दोनों किनारे (तटबंध) मजबूत होते हैं तो उस नदी का पानी पीने के, सिंचाई के, उद्योग-धन्धों आदि के काम में आता है, उससे जीवों का कल्याण होता है। लेकिन जब उसके किनारे कमजोर पड़ जाते हैं तो नदी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है और तब वही पानी अनेक गाँवों को जलमग्न कर देता है, अनेक मनुष्य और पश उसमें बह जाते हैं, भयंकर त्राहि-त्राहि मच जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन धर्म और मोक्ष के दो किनारों की तरह है। इन दो तटों की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन किया जाए तो मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए एवं अन्यों के लिए भी उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होता है। हमारे यहाँ जगत् और जीवन की उपेक्षा नहीं की गई। लेकिन संयममय, मर्यादानुकूल जीवन के व्यवहार पर जोर दिया गया। हमारे यहाँ पारिवारिक जीवन में इसी धर्म की भावना को विकसित करने को कहा गया। शास्त्रों में पत्नी को