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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : २९
जितेन्द्रिय नहीं है, १३. संविभाग नहीं करता है, १४. विश्वसनीय अथवा प्रीतिकर नहीं है।२८ स्वाध्याय महत्त्व
जैन साधना में स्वाध्याय को बहुत महत्त्व दिया गया है। स्वाध्याय शिक्षा का अभिन्न अंग है। भगवान् महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान् तप है। बारह प्रकार के आंतरिक व बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् से पूछा गया, 'हे भगवन् ! स्वाध्याय करने से जीव किसका लाभ प्राप्त करता है?' भगवान् ने उत्तर दिया___ सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्मं खवेई।२९
अर्थात् स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है। ____ भगवतीसूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया है कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकता है
सवणे नाणे विन्नाणे, पच्चखाणे य संजमे ।
अणण्हये तवे चेव, बोदाणे अकिरिया सिद्धी ।।" अर्थात् धर्म-श्रमण (स्वाध्याय) से निम्न लाभ होते हैं
१. ज्ञान, २. विशिष्ट तत्त्व-बोध, ३. प्रत्याख्यान (सांसारिक पदार्थों से विरक्ति), ४. संयम, ५. अनास्रव (नवीन कर्मों का निरोध), ६. तप, ७. पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, ८. सर्वथा कर्मरहित स्थिति तथा ९. सिद्धि (मुक्त स्थिति)।
इससे ज्ञात होता है कि जीवन की साधना में स्वाध्याय का स्थान सर्वोपरि है। स्वाध्याय के अंग
जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद् विवेचन मिलता है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कंठस्थ रखने का प्रचलन था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र-श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजोकर रखते थे। वेदों को 'श्रुति' और आगम को 'श्रुत कहा गया है, यह इसी तथ्य का सूचक है। जैन आचार्यों ने स्वाध्याय के निम्न पाँच अंगों का विस्तृत विवेचन किया है
१. वाचना- गुरुजनों से ज्ञान ग्रहण करना, उनके प्रवचन सुनना 'वाचना' कहलाता है। बड़े-बड़े ज्ञानियों ने जो ज्ञान पुस्तकों में लिपिबद्ध किया है, उसे पढ़ना वाचना कहलाता है। पढ़ना और किसी से सद्वचन सुनना, यह दोनों वाचना