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३२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१०
२४ घंटे चलते रहते हैं। उनमें से अनेक हिंसा एवं अश्लीलता को बढ़ावा देने वाले, हमारे पारिवारिक जीवन को विखण्डित करने वाले होते हैं। हमारी सरकार भी अधिक आमदनी की लालच में उन्हें बढ़ावा देती है। इसीलए समाज का यह दायित्व है कि जो व्यक्ति शिक्षणशालाएँ चलाते हैं, उनके द्वारा विद्यार्थियों को चरित्र-निर्माण के संस्कार दिए जाएँ। हमें विद्यालयों में जैन संस्कारों का भी ज्ञान देना होगा, यथा माता-पिता की भक्ति, गुरु-भक्ति, धर्म-भक्ति एवं राष्ट्र भक्ति। इसी प्रकार विद्यार्थियों को मानव मात्र से प्रेम, परोपकार की भावना, जीव रक्षा के संस्कार देने होंगे। उसे यह महसूस कराना होगा कि कोई दुःखी व्यक्ति है तो उसको यथाशक्य मदद देना, सामान्य-जन के सुख-दुःख में सम्मिलित होना, किसी के भी प्रति द्वेष नहीं रखना आदि संस्कार जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाते हैं। आज विश्व का बौद्धिक विकास तो बहुत हुआ है पर आध्यात्मिक विकास नहीं हुआ। ढोंगी साधु अध्यात्म के नाम पर धोखा अधिक दे रहे हैं। महाकवि दिनकर की बड़ी सुन्दर उक्ति है
बुद्धि तृष्णा की दासी हुई, मृत्यु का सेवक है विज्ञान ।
चेतता अब भी नहीं मनुष्य, विश्व का क्या होगा भगवान्? ।। मनुष्य की बुद्धि तृष्णा की दासी हो गई है। तृष्णा निरन्तर बढ़ती जा रही है। विज्ञान का भी उपयोग अधिकांशतः विध्वंसक अस्त्रों के सर्जन में हो रहा है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को सुख और शान्ति कैसे प्राप्त होगी? जैन शिक्षा का आदर्श
जैनागमों में शिक्षा का आदर्श था-भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वय। जैन शिक्षा के तीन अभिन्न अंग हैं- श्रद्धा, भक्ति और कर्म। सम्यग्दर्शन से हम जीवन को श्रद्धामय बनाते हैं, सम्यग्ज्ञान से हम पदार्थों के सही स्वरूप को समझते हैं तथा सम्यक् चारित्र से हम सुकर्म की ओर प्रेरित होते हैं। इन तीनों का जब हमारे जीवन में विकास होता है तभी हमारे जीवन में पूर्णता आती है। शिक्षा के द्वारा बौद्धिक विकास के साथ-साथ शिक्षार्थी का आन्तरिक व्यक्तित्व भी बदलना चाहिए। यही जैन शिक्षा का संदेश है- हम अप्रमत्त बनें, जागरूक बनें, चारित्र-सम्पन्न बनें। तभी हमारे राष्ट्र का तथा विश्व का कल्याण सम्भव है। सन्दर्भ-सूची १. शिक्षा, स्वामी विवेकानन्द, पृ.७, प्रकाशक- रामकृष्ण मठ, नागपुर। २. प्राचीन भारत में शिक्षा- डॉ. ए.एस. अल्तेकर, पृ. १२