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२४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१०
जेण तच्चं विबुझेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं जाणं जिणसासणे ॥
अर्थात् जिन शासन में उसी को ज्ञान कहा गया है जिससे तत्त्वों का बोध होता है, जिससे चित्त का निरोध होता है, तथा जिससे आत्मा विशुद्ध होती है। यह आध्यात्मिक शिक्षा का स्वरूप है। दशवैकालिकसूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्य बताए गए हैं
१. मुझे श्रुतज्ञान (आगम का ज्ञान) प्राप्त होगा। २. मैं एकाग्रचित्त होऊँगा। ३. मैं अपने आप को धर्म में स्थिर बनाऊँगा। ४. मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थिर बनाऊँगा।
इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर-ज्ञान नहीं माना गया। शिक्षा द्वारा चित्त की एकाग्रता एवं बुद्धि की स्थिरता प्राप्त होनी चाहिए तथा शिक्षार्थी को धर्म के जीवन-मूल्यों को अपनाने के योग्य बनना चाहिए। एकाग्रता के बिना व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। एक व्यक्ति शिक्षित हो पर मानसिक एकाग्रता से शून्य हो; उसे शिक्षा की विडम्बना ही कहना चाहिए। इसी बात को स्वामी विवेकानन्द ने कहा-'हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।' यही भारतीय संस्कृति का उद्घोष है, जो सनातन काल से चला आ रहा है। उपनिषद् में कहा है-'या विद्या सा विमुक्तये' अर्थात् विद्या वही है जो हमें विमुक्त करती है। विद्या किस चीज से विमुक्त करती है? तो कहा गया कि हममें जो दुःख की स्थिति है, आकुलता और व्याकुलता है, तनाव की स्थिति है, ये चाहे शारीरिक स्तर पर हों या मानसिक स्तर पर उनसे मुक्ति का साधन अन्ततोगत्वा विद्या ही है।
प्राचीन काल में शिक्षा (विद्या) के दो भेद कहे गए हैं- अपराविद्या (भौतिक ज्ञान) और पराविद्या (आध्यात्मिक ज्ञान)। जिस प्रकार से एक स्कूटर दो पहियों के बिना नहीं चल सकता है, वैसे ही पराविद्या और अपराविद्या दोनों का सामंजस्य नहीं हो तो जीवन की गाड़ी भी नहीं चलती। इस प्रकार हमारे देश के आचार्यों ने शिक्षा के सही संस्कारों का सारे देश में प्रचार-प्रसार किया। ये संस्कार हमारे राष्ट्र की सम्पदा हैं, अनमोल धरोहर हैं। हमारे देश में भौतिक ज्ञान की अवहेलना नहीं की गई किन्तु उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को अपनाने पर अधिक जोर दिया गया है। जैन आचार्यों ने शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए अध्यात्म विद्या को महाविद्या की संज्ञा प्रदान की। ऋषिभाषितसूत्र में आया है