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२६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१०
हयं नाणं किया हीणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पुंगलो दडढो, धावमाणो या अंधओ ॥२
अर्थात् क्रियाविहीन का ज्ञान व्यर्थ है। अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है। आगे भी कहा गया कि 'संजोअसिद्धीइ फलं वयति३ अर्थात् ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है।
जैन आचार्यों ने चारित्र शुद्धि पर बहुत अधिक जोर दिया है। शिक्षा द्वारा मनुष्य के उदात्त भावों की जागृति होनी चाहिए। इसमें प्रेम, करुणा, अनुकम्पा, क्षमा आदि मूल्यों का जागरण हो, वह मात्र जानकारियों तक सीमित नहीं रहे। आचारांग नियुक्ति में कहा है
अंगाणं किं सारो? आयारो।१४.
अर्थात् अंग साहित्य का सार क्या है? उनका सार आचार है। शीलपाहुड में कहा है
सीलेण विणा विसया, णाणं विणासंति।१५
अर्थात् शील के बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। इसी ग्रन्थ में कहा है
सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्ययं माणुसंजम्म।१६ अर्थात् शील गुण से रहित व्यक्तियों का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है।
मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले, बिना चारित्र के ज्ञान का कोई मूल्य नहीं। आवश्यक नियुक्ति में कहा है, सुबहंसि सुयपहीयं, किं. काही चरणविप्पहीणस्स। __अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडि वि ।।१७
अर्थात् शास्त्रों का अत्यधिक अध्ययन भी चरित्रहीन के लिए किस काम का। क्या करोड़ों दीपक जला देने पर भी अंधे को कोई प्रकाश मिल सकता है? इस प्रकार जैन आचार्यों ने उस शिक्षा को ग्रहण करने का प्रतिपादन किया जो चारित्र को उन्नत करने वाली हो। शिक्षाशील कौन?
आगम शास्त्रों में शिक्षार्थी के गुणों-अवगुणों पर भी विचार किया गया है। शिक्षा प्राप्ति की योग्यता किसमें है? इसका वर्णन उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है