Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 22
________________ जैन साहित्य में वर्णित वास्तु कला : एक समीक्षात्मक अध्ययन : १३ मन्दिर (जिनालय)- पउमचरिउ के अनुसार मुनिसुव्रत तीर्थंकर के तीर्थ में सम्पूर्ण भरत क्षेत्र जिनेन्द्र भवनों से सुशोभित था। तत्कालीन जिनालय विशाल तथा बहुमूल्य धातुओं से निर्मित होते थे। लंका नगरी में श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र का मन्दिर हजारों (स्तंभों) खंभों वाला था। शरत् कालीन मेघ के समान सफेद, अनेक प्रकार के चित्रों से सजा हुआ तथा ऊपर उठी हुई पताका से युक्त था। ऐसा लगता था जैसे- नीचे उतरा हुआ स्वर्ग-विमान हो। वास्तु-कला से युक्त होने के कारण सौम्य एवं सुखद था। ऐसे ही शान्तिनाथ जिनालय का वर्णन रयणचूडरायचरियं में भी विद्यमान है, जो निम्न है- 'रयणचूड में तीन बार मन्दिरों का उल्लेख हुआ है, उसमें एक ऋषभदेव का मन्दिर है जिसमें सैकड़ों स्वर्ण खम्भे थे। उसके शिखर आकाश तल को छूने वाले थे, उस पर स्वर्ण के कलश थे। मन्दिर का दूसरा प्रसंग शान्तिनाथ जिन मन्दिर का है जिससे स्थापत्य (वास्तु) कला के सम्बन्ध में निम्न जानकारी मिलती है- (१) वह मन्दिर ऊँची और विशाल चौकी पर निर्मित था। (२) उसका फर्श स्फटिकमणि से बना हुआ था। (३) दीवार मरकत मणि से सुशोभित थी। (४) करोंत की तरह उसका परकोटा था। (५) उसमें एक विजय द्वार एवं बड़ा दरवाजा था। (६) उसका तोरणद्वार कई प्रकार के मणियों से संचित था। (७) मन्दिर के ऊँचे शिखरों पर चढ़ने के लिए सोपान पंक्ति थी। (८) पताकाओं में मनोहर आवाज वाले चूंघरू बंधे हुए थे। (९) मन्दिर में सोने और रत्न की बनी हुई शालभंजिकाएँ थीं। तीसरा उल्लेख अमरदत्त और मित्रानंद की कथा के प्रसंग में पाटलीपुत्र में एक मन्दिर के दर्शन का प्रसंग है जो बगीचों और वापिकाओं से घिरा हुआ था। उसकी कारीगरी श्रेष्ठ थी। उस मन्दिर का करोड़क भाग श्रेष्ठ शालभंजिकाओं से सुशोभित था। वहाँ अनेक प्रकार की जीवों की आकृतियाँ बनी हुई थीं। मन्दिर के बायीं ओर काम रति की तरह रूपवती स्तंभ शालभंजिका थी। ऐसा ही स्थापत्य एवं वास्तुकला, खजुराहो के शान्तिनाथ जिन मन्दिर में और उसी समय (११वीं शताब्दी) के आबू के जैन मन्दिर में है। इस तरह की कला राणकपुर के जैन मन्दिरों में भी मिलती है जहाँ हवा के प्रवाह से पताकाओं की घंटियां मधुर आवाज करती रहती हैं। इसी तरह का वर्णन १५वीं शताब्दी में आचार्य जिनहर्ष गणि ने अपने 'रयणसेहरीणीवकहा में भी उल्लेख किया है। इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर आज तक बड़े मन्दिर बन रहे हैं जो वास्तु सन्दर्भ में दर्शनीय हैं, जैसे-देवगढ़ के जैन मन्दिर, खजुराहो का शान्तिनाथ मन्दिर आदि। ऐसे ही जिनालयों, मन्दिरों, मूर्तियों के उल्लेख अन्य जैन साहित्य में भी मिलते हैं।

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