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१६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१० रानी धारिणी का शयनगृह है, जो रंगीन मणियों से रचित था। अन्दर सुन्दर चित्रकारी थी। सुगंधित पदार्थों से गृह सुशोभित था। ऐसा ही सुन्दर एवं रमणीय वर्णन समराइच्चकहा में मिलता है जो पूर्ण वास्तु युक्त है। इसके अतिरिक्त भवनोद्यान, महानसगृह, बाह्यली, आस्थान-मंडप में भी वास्तु-कला के दर्शन होते हैं। सभी का विस्तार से वर्णन यहाँ संभव नहीं है। इन सभी के अध्ययन से पता चलता है कि ये भवनोद्यान आदि प्रकाशयुक्त विभिन्न रंगीन मणियों से खचित तथा सुगन्धित होने से हृदय को सुखकारी लगते थे।
समोसरण (समवसरण)- वास्तु-कला की दृष्टि से जैनधर्म में समवसरण का महत्त्व सर्वाधिक है। इसकी रचना के अन्तर्गत वास्तुकला के समस्त अंगउपांग समाविष्ट हो जाते हैं। आदिपुराण में वर्णित समवसरण वास्तु-कला की दृष्टि से अद्भुत है। इसके बाहरी भाग में धूलिसालकोट रहता है। इसकी आकृति वलयाकार होती है। रंगीन पत्थरों से निर्मित होने के कारण इसमें इन्द्रधनुष जैसी आभा प्रतीत होती है। यह धूलिसाल अनेक रत्नों की धूलि से बना होता है। धूलिसाल के चारों तरफ स्तम्भ, घन्टे, चामर, ध्वजा लटकी रहती है। इसकी चारों दिशाओं में चार प्रतिमाएं विराजमान हैं। इसमें वापिका होती है। वापिका के पास जल-परिखा है जो समोसरण की भूमि को वेष्टित करती रहती है। इसके भीतरी भाग में लता-वन होता है, जो दर्शकों के मन को अनुरक्त करता रहता है। इसके ऊपर प्रकोष्ट, जो गोपुर-द्वारा रत्नखंचित अलंकृत एवं मणियों, रत्नों से धूसरित रहता है। समवसरण में पशु-पक्षी, देवी, देवता सभी का आगमन होता रहता है जो पूर्ण वास्तु-कला से युक्त होने के कारण दर्शनीय होता है। समोसरण का वर्णन पासणाहचरिउ, पउमचरिउं, णेमिणाहचरिउं, सुकुमालचरिउं में भी मिलते हैं। यह मनुष्यकृत है या देवकृत यह कहना अभी सम्भव नहीं क्योंकि समोसरण रचना अतिभव्य, अति विशाल एवं मनोहर है, समवसरण के अतिरिक्त नन्दीश्वर द्वीप, मेरू, अष्टापद, पाताल नगरियों आदि की रचना में वास्तुकला अपनी चरम सीमा पर है। जिसका वर्णन आज कल्पनात्मक लगता है। इस प्रकार देवायतन, जिनालय, हर्म्य प्रासाद, भवन, प्रमदवन, वापिकाएं, दीर्घिकाएं, आस्थान-मंडप, अन्तःपुर आदि बनाने के लिए तो प्रथमतः भूमि का परीक्षण किया जाता था, वत्थुसारपयरण में लिखा है
दिणतिग-बीअप्पसवा चउरसा डवम्मिणी अफुट्ठा । असल्ला भू सुहया पुव्वेसाणुत्तरंबुवहा।