________________
जैन साहित्य में वर्णित वास्तु कला : एक समीक्षात्मक अध्ययन : १५
को गगनचुम्बी एवं ध्वजा से युक्त कहा गया है। २२ मन्दिर शब्द का दूसरा अर्थ भवन तथा नगर है। समरांगणसूत्रधार के १८वें अध्याय में मन्दिर का अर्थ राजप्रासाद या भवन है। अमरकोश में भी भवन अर्थ में मंदिर शब्द प्रयुक्त हुआ है।२३
-
प्रासाद- राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के विमान (प्रासाद) का वर्णन किया गया है जिससे पता चलता है कि वास्तुविद्या उन दिनों पर्याप्त विकसित हो चुकी थी। यह विमान चारों ओर से प्राकारों से परिवेष्टित था तथा सुन्दर कपि - शीर्षकों (कंगूरों) से अलंकृत था। इसके चारों ओर द्वार बने हुए थे जो ईहामृग, वृषभ, नरतुरय, मगर, विहग, सर्प, किन्नर आदि से अलंकृत थे। इसके ऊपर विद्याधर युगल की आकृति वाली वेदिकाएँ बनी हुई थीं। ऐसे ही राज- प्रासादों के वर्णन अन्य कई ग्रन्थों में मिलते हैं। मृच्छकटिकम् में शूद्रक, शकार एवं चारुदत्त के प्रासाद की भव्यता के वर्णन के साथ वसन्तसेना के महल के आठ प्रकोष्ठों का वर्णन वास्तु कला से ओत-प्रोत है । २५ इसी प्रकार अन्य धनाढ्य पुरुषों के प्रासाद वर्णन में वास्तु कला के दर्शन होते हैं। हर्म्य, महल, अट्टालिकाओं, परकोटों के वर्णन के साथ नगर वर्णन में भी वास्तुकला के दर्शन होते हैं। आदिपुराण में अयोध्या एवं हस्तिनापुर का वर्णन वास्तु-कला से युक्त था। अयोध्या के मध्य में राजभवन था। नगरी के चारों तरफ धूलिकोट, प्राकार एवं मुख्य दरवाजों सहित पत्थर से बने सुदृढ़ कोट और परिखा थे। नगर के चारों ओर प्राकार रहना आवश्यक था। नगर के मध्य में बाजार एवं चौराहे बनाये जाते थे। छोटे मार्ग मुख्य मार्ग से मिलते थे। यह वर्णन वास्तु-शास्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित है। इसी तरह के नगर वर्णन अन्य जैन साहित्य में मिलते हैं। प्रासादों में वापिका का वर्णन भी वास्तु युक्त था। ज्ञाताधर्मकथा में नंदमणिकार सेठ ने वापिका बनवायी जो वास्तुकला की दृष्टि से इतनी भव्य थी कि नंदमणिकार को उस वापिका से मोह हो गया फलस्वरूप मरकर वह उसी वापिका में मेंढक के रूप में उत्पन्न हुआ । २७ वापिका या दीर्घिका का उल्लेख आदिपुराण में भी आया है जिसमें लम्बी नहर थी। उसी नहर में वापिका थी। आदिपुराण में वज्रजंघ के राजमहल में दीर्घिका का उल्लेख है, जो पूर्ण वास्तु युक्त एवं सुखद थी । २८
२६
इस प्रकार जीवन को सुखकारी एवं आनन्दमय बनाने के लिए वापिका में धारागृह, प्रमदवन आदि क्रीड़ा स्थल बनाये जाते थे। ऐसे उल्लेख कई जैन ग्रन्थों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त रानियों के अन्तःपुर (रनिवास) को भी सुन्दर एवं सुखद बनाने के लिए वास्तु कला के प्रयोग का उल्लेख मिलता है जिसमें