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जैन साहित्य में वर्णित वास्तु कला : एक समीक्षात्मक अध्ययन : १९
यह भी बताया गया है कि दूसरों के मकान में जाने के लिए अपने मकान में से रास्ता हो तो विनाशकारक है। वृक्ष का वेध हो तो संतान वृद्धि न हो, कीचड़ का वेध हो तो शोक हुआ करता है, परनाले का वेध हो तो धन का नाश होता है। कुआँ का वेध हो, अपस्मार रोग हो, शिव, सूर्य, देव आदि वेध हो तो गृहस्वामी का विनाश होता है। स्तम्भ वेध हो तो स्त्री कष्टदायक रहे, ब्रह्मा के सामने द्वार हो तो कुल का विनाश हो, गृह के समीप कांटे वाले वृक्ष हों तो शत्रु का भय रहता है, दूध वाले वृक्ष हों तो लक्ष्मी का विनाश होता है और फल वाले वृक्ष होने से संतान वृद्धि नहीं होती। मकान में बिजोरा, कसेला, दाडिम, नीबू, अमरूद, इमली, बबूल, बेर, पीले फूल वाले वृक्ष नहीं बोने चाहिए क्योंकि ये वृक्ष कुल के लिए हानिकारक माने जाते हैं। इसलिए मकान में केवल सरस्वती, लक्ष्मी, फल वाले वृक्षों, कलश, स्वस्तिक के ही चित्र लगाने चाहिए। इन सातों वेधों का फल वात्थुसार-पयरण में लिखा है कि तल वेध से कुष्ठ रोग, कोण वेध से उच्चाल, तालु वेध से भय, स्तंभवेध से कुलक्षय, कपाल और तुला वेध से धन का विनाश और दरिद्र का भाव होता है।
जैन सिद्धान्तों के अनुसार वास्तु हेय है क्योंकि इससे मोह उत्पन्न होता है। प्राणी कामार्त हो जाता है, किन्तु आज के भौतिक चकाचौंध के युग में संसार के प्राणी वास्तु के पीछे ही अपना सर्वस्व लुटा रहे हैं। इस प्रतियोगिता के युग में लोग पैसे को पानी की तरह बहा कर वास्तु-कला के माध्यम से आलीशान बंगले बनाने में लगे हुए हैं। इनका एक मात्र उद्देश्य जीवन में भौतिक सुख को प्राप्त करना है। तभी आज के वास्तुविद् करोड़पति हैं। पूर्व में केवल देवालयों, राजप्रासादों एवं धनिकों के भव्य भवनों में ही वास्तु-कला दिखाई देती थी किन्तु आज के युग में जो भी मकान आदि का निर्माण कराता है वास्तुविदों से जरूर सम्पर्क स्थापित करता है जिसे आज का आर्किटेक्ट इंजिनियर भी कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का मानना है कि 'यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्।' जब उसका कदम आध्यात्मिकता के सोपान पर पड़ता है तो धीरे-धीरे इन सब से निर्मोह होने लगता है। सन्दर्भ-सूची १. शास्त्री नेमिचन्द्र, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृष्ठ २९१ २. मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ. ६६९ ३. हरगोविन्ददास,पाइयसद्दमहण्णवो, पृ. ७४४ ४. अर्धमागधी शब्दकोष, पृ. ३४१