Book Title: Sramana 2010 04
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 23
________________ १४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून १० : १४ मूर्तियाँ - मन्दिरों में जो मूर्तियाँ होती थीं वे भी वास्तु-कला से युक्त थीं। कुवलयमाला में तीर्थंकरों की मूर्तियों में वास्तु- कला के दर्शन होते हैं, जिसमें पद्मदेव सौधर्म विमान से जिनगृह में प्रविष्ट हुआ, वहाँ स्थापित जिन - प्रतिमाओं कोई स्फटिक मणिसे, कोई सूर्यकान्त मणि से, कोई महानील मणि से, कोई कर्केतन रत्न से, कोई प्रतिमा मुक्ताफल से निर्मित थीं । ४ मुक्ताशैल से निर्मित शिवलिंग तथा चषक का उल्लेख बाणभट्ट ने अपनी कादम्बरी में भी किया है । १५ इसी तरह मूर्तियों में वास्तु - कला के दर्शन - रयणचूड में शान्तिनाथ एवं ऋषभदेव की मूर्ति में मिलते हैं। ये मूर्तियाँ श्वेताम्बर मूर्तियों के अनुरूप हैं। शान्तिनाथ मन्दिर की मूर्ति को आठ प्रातिहार्यों से युक्त बताया गया है, जो त्रिभुवन के प्रभुत्त्व के सूचक थे। वह मूर्ति अपने प्रशान्त शरीर को तथा वीतरागता को प्रकट कर रही थी । दृष्टि के शान्तराग से करुणरस को सूचित कर रही थी । प्रसन्न मुख - कमल से समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव प्रकट कर रही थी। वह मूर्ति स्वर्ण एवं रत्नों से निर्मित, पुष्पों से अलंकृत एवं दिव्य आभूषणों से सुशोभित थी । रयणचूड में मूर्तिकला से सम्बन्ध रखने वाली शालभंजिका का कई बार उल्लेख हुआ है। यह शालभंजिका अत्यन्त सुन्दर, रमणीय एवं मनमोहक थी । ६ डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपने ग्रन्थ ' कादम्बरी का सांस्कृतिक अध्ययन' में इस पर विशेष प्रकाश डाला है। १७ ऐसी ही शालभंजिका का वर्णन उद्योतन सूरि ने अपनी कुवलयमाला" में समोसरण की रचना के प्रसंग में किया है। पाणिनि की अष्टाध्यायी" तथा वात्स्यायन की जयमंगला टीका में भी इसपर विस्तार से वर्णन मिलता है। चैत्यालय के ऊपरी भाग में उत्कीर्ण पुतलियों पर मोहित होना बताया गया है तथा राजवल्लभकृत पद्मावतीचरित में भी राजपुत्र चित्रसेन का पुतलियों पर मोहित होना बताया गया है। पउमचरियं में वास्तु को ध्यान में रखते हुए जिनालय में स्थापित जिन-मूर्ति की पूजा आदि का पूरा ध्यान रखा जाता था तथा उस मूर्ति का अपमान करने से बड़े भारी पाप का बन्ध होता था, जो कालान्तर में महादुःख पैदा करता था। रानी कनकोदरी ने अपने सौतन से रुष्ट होकर जिन - प्रतिमा को चैत्यगृह से उठाकर घर के अन्य भाग में रख दिया था। आर्यिका द्वारा समझाने पर पुनः चैत्यगृह में रख दिया, फिर भी जिनप्रतिमा के अपमान के कारण अगले जन्म में अन्जना को २२ वर्ष तक पतिवियोग एवं चारित्रिक कलंक के दुःख को सहना पड़ा। २० मन्दिरों पर ध्वजाओं का फहराना भी आवश्यक था। ध्वजा, देव मन्दिर का आवश्यक अंग था। ठक्करफेरू ने अपने वत्थुसारपयरण में लिखा है कि देव मन्दिर के शिखर पर ध्वजा न हो तो उस मन्दिर में असुरों का निवास होता है। २१ जयोदय महाकाव्य में देवालयों

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