Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ ( १६ ) २. निर्वाणक्षेत्र निर्वाणक्षेत्र को सामान्यतया सिद्धक्षेत्र भी कहा जाता है । जिस स्थल से किसी मुनि को निर्वाण प्राप्त होता है, वह स्थल सिद्धक्षेत्र या निर्वाणस्थल के नाम से जाना जाता है । सामान्य मान्यता तो यह है कि इस भूमण्डल पर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ से कोई न कोई मुनि सिद्धि को प्राप्त न हुआ हो । अतः व्यावहारिक दृष्टि से तो समस्त भूमण्डल ही सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र है । फिर भी सामान्यतया जहाँ से अनेक सुप्रसिद्ध मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया हो, उसे निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है । जैन परम्परा में शत्रु जय, पावागिरि, तुंगीगिरि सिद्धवरकूट, चूलगिरि रेशन्दगिरि, सोनागिरि आदि सिद्धक्षेत्र माने जाते हैं । सिद्धक्षेत्रों की विशिष्ट मान्यता तो दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में भी शत्रु जयतीर्थं सिद्धक्षेत्र ही है । ३. अतिशय क्षेत्र वे स्थल, जो न तो किसी तीर्थङ्कर की कल्याणक भूमि हैं, न किसी मुनि की साधना या निर्वाण-भूमि हैं किन्तु जहाँ की जिन-मूर्तियाँ चमत्कारी हैं अथवा जहाँ के मन्दिर भव्य हैं, वे अतिशय क्षेत्र कहे जाते हैं । आज जैन परम्परा में अधिकांश तीर्थ अतिशय क्षेत्र के रूप में ही माने जाते हैं । उदाहरण के रूप में आबू, राणकपुर, जैसलमेर, श्रवणबेलगोला आदि इसी रूप में प्रसिद्ध हैं । हमें स्मरण रखनाचाहिए कि जैनों के कुछ तीर्थ न केवल तीर्थङ्करों की मूर्तियों के चमत्कारिक होने के कारण, अपितु उस तीर्थ के अधिष्ठायक देवों की चमत्कारिता के कारण भी प्रसिद्ध हैं । उदाहरण के रूप में नाकोड़ा और महुड़ी की प्रसिद्धि उन तीर्थों के अधिष्ठायक देवों के कारण ही हुई है। इसी प्रकार हुम्मच की प्रसिद्धि पार्श्व की यक्षी - पद्मावतो की मूर्ति के चमत्कारिक होने के आधार पर ही है । इन तीन प्रकार के तीर्थों के अतिरिक्त कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जो इस कल्पना पर आधारित हैं कि यहाँ पर किसी समय तीर्थङ्कर का पर्दापण हुआ था या उनकी धर्मसभा (समवसरण, हुई थी। इसके साथसाथ आज कुछ जैन आचार्यों के जीवन से सम्बन्धित स्थलों पर गुरुमंदिरों का निर्माण कर उन्हें भी तीर्थ रूप में माना जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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