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धर्म का आज का रूप इतने परिवर्तनों से होकर निकला है कि अपने प्राचीन रूप से भिन्न अवस्था में आ गया है। इसी प्रकार, बौद्ध धर्म अपनी मातृभूमि में भी टिका नहीं रह सका, भले ही वह उसके बाहर प्रसरित हुआ । इन दोनों के विपरीत, जैन धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो न केवल आज भी जीवित है प्रत्युत बहुत बड़ी सीमा तक अपने मूल रूप और दर्शन को अक्षुण्ण बनाये हुए है । अतएव श्रमण धर्म और जैन संस्कृति एक अविछिन्न संबंध और विध्यात्मक संपर्क का सद्भाव प्रतीत होता है, जो अतीत में भी था और वर्तमान में भी है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म ने श्रमण धर्म की परंपराओं की दाय प्राप्त की है और उनका परिपालन भी किया है ।
श्रमण धर्मों के मुख्य लक्षणों का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है, अब हम उनके प्रकाश में आज के जैन आचार की परीक्षा करेंगे जिससे जैन संस्कृति और श्रमण परंपरा की तुलनात्मक व्याख्या की जा सके । प्रथम और सर्वोपरि, श्रमण समाज एक भ्रमणशील समाज था, सांसारिक गतिविधियों से अस्पृष्ट, यह लक्षण तीर्थङ्कर महावीर के जीवन में ही नहीं परिलक्षित होता है, प्रत्युत जैन साधुओं और साध्वियों के संघ में आज प्रचलित जीवन-पद्धति में भी दृष्टिगत होता है । यह परिज्ञात है कि महावीर अपनी विहार यात्राओं में ग्रामो में एक रात्रि और नगरों में पांच रात्रियों तक ही रुकते थे ( गांमे एगराइया, नयरे पंत्रराइया ) इस पद्धति का पालन वर्षावास के अति-रिक्त, जैन साधुओं और साध्वियों द्वारा आज भी किया जाता है ।
श्रमण परंपरा का दूसरा प्रमुख लक्षण था अहिंसा का निरतिचार पालन | बाईसवें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि का कथानक इतना सुपरिचित है कि यहां उसकी पुनरावृत्ति अनावश्यक है । इतना कहना ही पर्याप्त है कि जैन आज भी अहिंसा के सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक नियम बद्ध धुरंधर माने जाते हैं । साधु-जीवन से संबंधी नियमावली इतनी कठिन प्रतीत होती है कि उसका पालन ही न किया जा सके किन्तु उसका आधार है मुख्यतः वह सिद्धांत जिसके अनुसार शारीरिक, मानसिक और वाचनिक हिंसा का परित्याग आवश्यक है । दसवेयालिय की यह उक्ति उचित ही है कि "सभी जीव जीवित रहना चाहते हैं, मरना
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